रोना हीं तो भगवान के लिए ही रोयें......

हरिबाबा से एक भक्त ने कहाः
"महाराज ! यह अभागा, पापी मन रूपये पैसों के लिए तो रोता पिटता हैलेकिन भगवान अपना आत्मा हैं, फिर भी आज तक नहीं मिलि इसके लिए रोता नहीं है।
क्या करें ?"

हरिबाबाः
"रोना नहीं आता तो झूठमूठ में ही रो ले।"

"महाराज ! झूठमूठ में भी रोना नहीं आता है तो क्या करें ?"

महाराज दयालु थे। उन्होंने भगवान के विरह की दो बातें कहीं।

विरह की बात करते-करते उन्होंने बीच में ही कहा कि
"चलो, झूठमूठ में रोओ।"

सबने झूठमूठ में रोना चालू किया तो देखते-देखते भक्तों में सच्चा भाव जग गया।

झूठा संसार सच्चा आकर्षण पैदा करके चौरासी के चक्कर में डाल देता है तो भगवान के लिए झूठमूठ में रोना सच्चा विरह पैदा करके हृदय में प्रेमाभक्ति भी जगा देता है।

अनुराग इस भावना का नाम है कि
"भगवान हमसे बड़ा स्नेह करते हैं,
हम पर बड़ी भारी कृपा रखते हैं।
हम उनको नहीं देखते पर वे हमको देखते रहते हैं।

हम उनको भूल जाते हैं पर वे हमको नहीं भूलते।
हमने उनसे नाता- रिश्ता तोड़ लिया है पर उन्होंने हमसे अपना नाता- रिश्ता नहीं तोड़ा है।

हम उनके प्रति कृतघ्न हैं पर हमारे ऊपर उनके उपकारों की सीमा नहीं है।

भगवान हमारी कृतघ्नता के बावजूद हमसे प्रेम करते हैं,
हमको अपनी गोद में रखते हैं, हमको देखते रहते हैं, हमारा पालन-पोषण करते रहते हैं।'

इस प्रकार की भावना ही प्रेम का मूल है।

अगर तुम यह मानते हो कि 'मैं भगवान से बहुत प्रेम करता हूँ लेकिन भगवान नहीं करते' तो तुम्हारा प्रेम खोखला है।

अपने प्रेम की अपेक्षा प्रेमास्पद के प्रेम को अधिक मानने से ही प्रेम बढ़ता है।

कैसे भी करके कभी प्रेम की मधुमय सरिता में गोता मारो तो कभी विरह की।

दिल की झरोखे में झुरमुट के पीछे से जो टुकुर-टुकुर देख रहे हैं दिलबर दाता, उन्हें विरह में पुकारोः

'हे नाथ !.... हे देव !... हे रक्षक-पोषक प्रभु !.....
टुकुर-टुकुर दिल के झरोखे से देखने वाले देव !....
प्रभुदेव !... ओ देव !... मेरे देव !....
प्यारे देव !.....
तेरी प्रीति, तेरी भक्ति दे.....
हम तो तुझी से माँगेंगे, क्या बाजार से लेंगे ?

कुछ तो बोलो प्रभु !...'

कैसे भी उन्हें पुकारो।
वे बड़े दयालुहैं।
वे जरूर अपनी करूणा- वरूणा का एहसास करायेंगे।


तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीज।
भूमि फैंके उगेंगे, उलटे सीधे बीज।

"खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है "

मलूकचंद नाम के एक सेठ थे।
उनका जन्म इलाहाबाद जिले के कड़ा नामक ग्राम में वैशाख मास की कृष्ण पक्ष की पंचमी को संवत् 1631 में हुआ था।
पूर्व के पुण्य से वे बाल्यावस्था में तो अच्छे रास्ते चले ,
उनके घर के नजदीक ही एक मंदिर था।

एक रात्रि को पुजारी के कीर्तन की ध्वनि के कारण उन्हें ठीक से नींद नहीं आयी।
सुबह उन्होंने पुजारी जी को खूब डाँटा कि "यह सब क्या है ?"

पुजारी जी बोलेः
"एकादशी का जागरण कीर्तन चल रहा था।"

मलूकचंद बोलेः
"अरे ! क्या जागरण कीर्तन करते हो ?
हमारी नींद हराम कर दी।
अच्छी नींद के बाद व्यक्ति काम करने के लिए तैयार हो पाता है,
फिर कमाता है तब खाता है।"

पुजारी जी ने कहाः "मलूकजी ! खिलाता तो वह खिलाने वाला ही है।"

मलूकचंद बोलेः
"कौन खिलाता है ? क्या तुम्हारा भगवान खिलाने आयेगा?"

पुजारी जी ने कहाः "वही तो खिलाता है।"

मलूकचंद बोलेः
"क्या भगवान खिलाता है !
हम कमाते हैं तब खाते हैं।"

पुजारी जी ने कहाः "निमित्त होता है तुम्हारा कमाना और पत्नी का रोटी बनाना,
बाकी सबको खिलाने वाला,
सबका पालनहार तो वह जगन्नियन्ता ही है।"

मलूकचंद बोलेः
"क्या पालनहार-पालनहार लगा रखा है ! बाबा आदम के जमाने की बातें करते हो। क्या तुम्हारा पालने
वाला एक-एक को आकर खिलाता है ?
हम कमाते हैं तभी तो खाते हैं !"

पुजारी जी ने कहाः "सभी को वही खिलाता है।"

मलूकचंद बोलेः
"हम नहीं खाते उसका दिया।"

पुजारी जी ने कहाः "नहीं खाओ तो मारकर भी खिलाता है।"

मलूकचंद बोलेः
"पुजारी जी ! अगर तुम्हारा भगवान मुझे चौबीस घंटोंमें नहीं खिला पाया तो फिर तुम्हें अपना यह भजन-कीर्तन सदा के लिए बंद करना होगा।"

पुजारी जी ने कहाः "मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बहुत पहुँच है लेकिन उसके हाथ बढ़े लम्बे हैं।
जब तक वह नहीं चाहता, तब तक किसी का बाल भी बाँका नहीं हो सकता।
आजमाकर देख लेना।"

पुजारीजी भगवान में प्रीति वाले कोई सात्त्विक भक्त रहें होंगे।

मलूकचंद किसी घोर जंगल में चले गये और एक विशालकाय वृक्ष की ऊँची डाल पर चढ़कर बैठ गये कि 'अब देखें इधर कौन खिलाने आता है।

चौबीस घंटे बीत जायेंगे और पुजारी की हार हो जायेगी, सदा के लिए कीर्तन की झंझट मिट जायेगी।'

दो-तीन घंटे के बाद एक अजनबी आदमी वहाँ आया।
उसने उसी वृक्ष के नीचे आराम किया, फिर अपना सामान उठाकर चल दिया लेकिन अपना एक थैला वहीं भूल गया।

भूल गया कहो, छोड़ गया कहो।
भगवान ने किसी मनुष्य को प्रेरणा की थी अथवा मनुष्यरूप में साक्षात् भगवत्सत्ता ही वहाँ आयी थी,
यह तो भगवान ही जानें।

थोड़ी देर बाद पाँच डकैत वहाँ से पसार हुए।
उनमें से एक ने अपने सरदार से कहाः
"उस्ताद ! यहाँकोई थैला पड़ा है।"

"क्या है ?
जरा देखो।"

खोलकर देखा तो उसमें गरमागरम भोजन से भरा टिफिन !
"उस्ताद भूख लगी है। लगता है यह भोजन अल्लाह ताला ने हमारे लिए ही भेजा है।"

"अरे ! तेरा अल्लाह ताला यहाँ कैसे भोजन भेजेगा ?
हमको पकड़ने या फँसाने के लिए किसी शत्रु ने ही जहर-वहर डालकर यह टिफिन यहाँ रखा होगा अथवा पुलिस का कोई षडयंत्र होगा।

इधर-उधर देखो जरा कौन रखकर गया है।"

उन्होंने इधर-उधर देखा लेकिन कोई भी आदमी नहीं दिखा।

तब डाकुओं के मुखिया ने जोर से आवाज लगायीः
"कोई हो तो बताये कि यह थैला यहाँ कौन छोड़ गया है।"

मलूकचंद ऊपर बैठे-बैठे सोचने लगे कि 'अगर मैं कुछ बोलूँगा तो ये मेरे ही गले
पड़ेंगे।'

वे तो चुप रहे लेकिन जो सबके हृदय की धड़कनें चलाता है, भक्तवत्सल है वह अपने भक्त का वचन पूरा किये बिना शांत नहींरहता !
उसने उन डकैतों को प्रेरित किया कि 'ऊपर भी देखो।'

उन्होंने ऊपर देखा तो वृक्ष की डाल पर एक आदमी बैठा हुआ दिखा।

डकैत चिल्लायेः
"अरे ! नीचे उतर!"

मलूकचंद बोलेः
"मैं नहीं उतरता।"

"क्यों नहीं उतरता,
यह भोजन तूने ही रखा होगा।"

मलूकचंद बोलेः
"मैंने नहीं रखा।
कोई यात्री अभी यहाँ आया था,
वही इसे यहाँ भूलकर चला गया।"

"नीचे उतर !
तूने ही रखा होगा जहर-वहर मिलाकर और अब बचने के लिए बहाने बना रहा है।
तुझे ही यह भोजन खाना पड़ेगा।"

अब कौन-सा काम वह सर्वेश्वर किसके
द्वारा, किस निमित्त से करवाये अथवा उसके लिए क्या रूप ले यह उसकी मर्जी की बात है।

बड़ी गजब की व्यवस्था है उस परमेश्वर की !

मलूकचंद बोलेः
"मैं नीचे नहीं उतरूँगा और खाना तो मैं कतई नहीं खाऊँगा।"

"पक्का तूने खाने में जहर मिलाया है।
अरे ! नीचे उतर, अब तो तुझे खाना ही होगा !"

मलूकचंद बोलेः
"मैं नहीं खाऊँगा,नीचे भी नहीं उतरूँगा।"

"अरे, कैसे नहीं उतरेगा !"
डकैतों के सरदार ने अपने एक आदमी को हुक्म दियाः
"इसको जबरदस्ती नीचे उतारो।"

डकैत ने मलूकचंद को पकड़कर नीचे उतारा।
"ले, खाना खा।"

मलूकचंद बोलेः
"मैं नहीं खाऊँगा।"

उस्ताद ने धड़ाक से उनके मुँह पर तमाचा जड़ दिया।

मलूकचंद को पुजारीजी की बात याद आयी कि 'नहीं खाओगेतो मारकर भी खिलायेगा।'

मलूकचंद बोलेः
"मैं नहीं खाऊँगा।"

"अरे,कैसे नहीं खायेगा!
इसकी नाक दबाओ और मुँह खोलो।" ,
डकैतों ने उससे नाक दबायी,
मुँह खुलवाया और जबरदस्ती खिलाने लगे।

वे नहीं खा रहे थे तो डकैत उन्हें पीटने लगे।
अब मलूकचंद ने सोचा कि 'ये पाँच हैं और मैं अकेला हूँ।
नहीं खाऊँगा तो ये मेरी हड्डी पसली एक कर देंगे।'
इसलिए चुपचाप खाने लगे और मन- ही-मन कहाः
'मान गये मेरे बाप ! मारकर भी खिलाता है !

डकैतों के रूप में आकर खिला चाहे भक्तों के रूप में आकर खिला लेकिन खिलाने वाला तो तू ही है।
अपने पुजारी की बात तूने सत्य साबित कर दिखायी।'

मलूकचंद के बचपन की भक्ति की धारा फूट पड़ी।
उनको मारपीटकर डकैत वहाँ से चले गये तो मलूकचंद भागे और पुजारी जी के पास आकर बोलेः
"पुजारी जी ! मान गये आपकी बात कि नहीं खायें तो वह मारकर भी खिलाता है।"

पुजारी जी बोलेः
"वैसे तो कोई तीन दिन तक खाना न खाये तो वह जरूर किसी-न-किसी रूप में आकर खिलाता है लेकिन मैंने प्रार्थना की थी कि 'तीन दिन की नहीं एक दिन की शर्त रखी है,
तू कृपा करना।'

अगर कोई सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हृदयपूर्वक प्रार्थना करता है तो वह अवश्य सुनता है।
वह तो सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।"

''जय जय श्री राधे''

क्रोध ही राक्षस है...


एक बार श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकि एक घने जंगल में पहुंचे। वहां रात हो गई, 
इसलिए तीनों ने जंगल में ही रात बिताने का निर्णय लिया ।

जंगल बहुत घना और खतरनाक था ।
उसमें अनेक हिंसक जानवर रहते थे। इसलिए तय किया गया कि सब मिल कर बारी- बारी से पहरा देंगे ।

सबसे पहले सात्यकि की बारी आई,
रात के पहले पहर में वे जग कर निगरानी करने लगे ।

श्रीकृष्ण और बलराम सोने चले गए ।
उसी समय एक भयानक राक्षस आया और सात्यकि पर आक्रमण कर दिया ।
सात्यकि बहुत बलवान थे ।
राक्षस के आक्रमण से उन्हें बड़ा गुस्सा आया ।

क्रोध में आ कर उन्होंने भी पूरे बल के साथ उस राक्षस पर आक्रमण कर दिया ।
मगर सात्यकि को जितना अधिक क्रोध आता,
उस राक्षस का आकार उतना ही बड़ा हो जाता ।

कुछ देर के बाद राक्षस अदृश्य हो गया ।

दूसरे पहर में श्रीबलराम पहरा देने उठे ।
जब श्रीकृष्ण और सात्यकि सो गए तो श्रीबलराम के साथ भी वैसा ही हुआ, जैसा सात्यकि के साथ हुआ था ।

तीसरे पहर में श्रीकृष्ण पहरा दे रहे थे ।
राक्षस फिर आया। श्रीकृष्ण हंसते-हंसते उसका मुकाबला करने लगे।

उन्हें उस पर क्रोध नहीं आया ।
राक्षस जितनी बार आक्रमण करता, श्रीकृष्ण उतनी बार मुस्कराते और उसके हमले का जवाब देते ।

फिर आश्चर्यजनक बात हुई ।

श्रीकृष्ण जितना मुस्कराते, राक्षस का आकार उतना ही छोटा हो जाता ।

धीरे- धीरे वह छोटा होकर मच्छर के बराबर हो गया । श्रीकृष्ण ने उसे पकड़ कर अपने दुपट्टे में बांध लिया ।

सुबह हुई तो श्रीबलराम और सात्यकि को घायल देखकर श्रीकृष्ण ने पूछा,
यह सब कैसे हुआ। तुम दोनों तो बहुत शक्तिशाली हो, तुम्हें किसने घायल कर दिया ?

दोनों ने रात की घटना बताई ।

श्रीकृष्ण ने दुपट्टे को खोल कर वह मच्छर दिखाते हुए कहा, यह रहा तुम्हारा राक्षस ।

सत्य यह है कि क्रोध ही राक्षस है ।
जितना क्रोध करोगे, राक्षस उतना ही शक्तिशाली होता जाएगा और तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा ।
असल में अपने आप में राक्षस कुछ नहीं है ।........

संकट से पहले भगवान की कृपा....


Photo: संकट से पहले भगवान की कृपा 
आ जाती है....

सुन्दरकाण्ड का उस समय का प्रसंग है जब हनुमान जी सीता जी की खोज में लंका जाते है 
और अशोक वाटिका में उसी वृक्ष में ऊपर बैठ जाते है 
जिस वृक्ष के नीचे सीता जी बैठी हुई थी.

फिर रावण आता है.
और सीता जी को डरता है, धमकाता है.

और सीता जी रोती बिलखती है. 

सीता जी उस समय सामने खड़े रावण रूपी संकट को तो देखती है परन्तु ऊपर हनुमान जी रूपी भगवान की कृपा को नहीं देख पाती.

हनुमानजी रावण के आने से पहले ही अशोक वाटिका में पहुच गए थे,

अर्थात भगवान संकट आने से पहले ही कृपा पहले भेज देते है. 

इसी तरह हम भी करते है,
जब हमारे ऊपर संकट आता है तो हम सामने खड़े संकट को ही देखते है और डरते रहते है.

हमारी सोच, बुद्धि इस तरफ नहीं जाती कि भगवान कि कृपा हमारे ऊपर पहले से ही है.
हम से ज्यादा भगवान को हमारी चिंता है. 

आगे फिर सीता जी हनुमान जी से कहती है कि भगवान मुझे भूल गए है,
उनसे कहना जब इंद्र के पुत्र जयंत ने मेरे चरण में चोच मारी थी तब आपने एक तिनके को संधान करने छोड़ा था,
और उस बाण ने तीनो लोको में कही भी जयंत को नहीं छोड़ा था,
अब तो रावण मुझे हर के ले आया है,
उसने इतना बड़ा अपराध किया है,
अब वे उसेदंड क्यों नहीं देते?

इस पर हनुमाना जी बोले - 
माता! उस समय तो  उन्होंने एक छोटा सा बाण छोड़ा था अब तो हनुमान नामा का बाण छोड़ा है और जगत को पता है श्री राम चन्द्र जी का बाण कभी निष्फल नहीं होता....
सुन्दरकाण्ड का उस समय का प्रसंग है जब हनुमान जी सीता जी की खोज में लंका जाते है
और अशोक वाटिका में उसी वृक्ष में ऊपर बैठ जाते है
जिस वृक्ष के नीचे सीता जी बैठी हुई थी.


फिर रावण आता है.
और सीता जी को डरता है, धमकाता है.

और सीता जी रोती बिलखती है.
सीता जी उस समय सामने खड़े रावण रूपी संकट को तो देखती है परन्तु ऊपर हनुमान जी रूपी भगवान की कृपा को नहीं देख पाती.

हनुमानजी रावण के आने से पहले ही अशोक वाटिका में पहुच गए थे,
अर्थात भगवान संकट आने से पहले ही कृपा पहले भेज देते है.

इसी तरह हम भी करते है,
जब हमारे ऊपर संकट आता है तो हम सामने खड़े संकट को ही देखते है और डरते रहते है.

हमारी सोच, बुद्धि इस तरफ नहीं जाती कि भगवान कि कृपा हमारे ऊपर पहले से ही है.
हम से ज्यादा भगवान को हमारी चिंता है.

आगे फिर सीता जी हनुमान जी से कहती है कि भगवान मुझे भूल गए है,
उनसे कहना जब इंद्र के पुत्र जयंत ने मेरे चरण में चोच मारी थी तब आपने एक तिनके को संधान करने छोड़ा था,
और उस बाण ने तीनो लोको में कही भी जयंत को नहीं छोड़ा था,
 
अब तो रावण मुझे हर के ले आया है,
उसने इतना बड़ा अपराध किया है,
अब वे उसेदंड क्यों नहीं देते?

इस पर हनुमाना जी बोले -
माता! उस समय तो उन्होंने एक छोटा सा बाण छोड़ा था अब तो हनुमान नामा का बाण छोड़ा है और जगत को पता है श्री राम चन्द्र जी का बाण कभी निष्फल नहीं होता....

गोवर्धन पूजा...

दीपावली की अगली सुबह गोवर्धन पूजा की जाती है। लोग इसे अन्नकूट के नाम से भी जानते हैं। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है । शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी  लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है । देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की ।

जब "भगवान् श्रीकृष्ण" ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप-गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे। सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और हर वर्ष गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा ।

गोवर्धन पूजा के सम्बन्ध में एक लोकगाथा प्रचलित है। कथा यह है कि देवराज इन्द्र को अभिमान हो गया था। इन्द्र का अभिमान चूर करने हेतु भगवान श्री कृष्ण जो स्वयं लीलाधारी श्री हरि विष्णु के अवतार हैं उन्होंने एक लीला रची। प्रभु की इस लीला में यूं हुआ कि एक दिन उन्होंने देखा के सभी बृजवासी उत्तम पकवान बना रहे हैं और किसी पूजा की तैयारी में जुटे। श्री कृष्ण ने बड़े भोलेपन से मईया यशोदा से प्रश्न किया " मईया ये आप लोग किनकी पूजा की तैयारी कर रहे हैं" । "भगवान् श्रीकृष्ण" की बातें सुनकर मैया बोली लल्ला हम देवराज इन्द्र की पूजा के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं । मैया के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण बोले मैया हम इन्द्र की पूजा क्यों करते हैं ? मैईया ने कहा वह वर्षा करते हैं जिससे अन्न की पैदावार होती है उनसे हमारी गायों को चारा मिलता है। भगवान श्री कृष्ण बोले हमें तो गोर्वधन पर्वत की पूजा करनी चाहिए क्योंकि हमारी गाये वहीं चरती हैं, इस दृष्टि से गोर्वधन पर्वत ही पूजनीय है और इन्द्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते व पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं अत: ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए।

लीलाधारी की लीला और माया से सभी ने इन्द्र के बदले गोवर्घन पर्वत की पूजा की। देवराज इन्द्र ने इसे अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि, सब इनका कहा मानने से हुआ है। तब मुरलीधर ने मुरली कमर में डाली और अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्घन पर्वत उठा लिया और सभी बृजवासियों को उसमें अपने गाय और बछडे़ समेत शरण लेने के लिए बुलाया। इन्द्र कृष्ण की यह लीला देखकर और क्रोधित हुए फलत: वर्षा और तेज हो गयी। इन्द्र का मान मर्दन के लिए तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।

इन्द्र लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा करते रहे तब उन्हे एहसास हुआ कि उनका मुकाबला करने वाला कोई आम मनुष्य नहीं हो सकता अत: वे ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और सब वृतान्त कह सुनाया। ब्रह्मा जी ने इन्द्र से कहा कि आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं वह भगवान विष्णु के साक्षात अंश हैं और पूर्ण पुरूषोत्तम नारायण हैं । ब्रह्मा जी के मुंख से यह सुनकर इन्द्र अत्यंत लज्जित हुए और श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान न सका इसलिए अहंकारवश भूल कर बैठा। आप दयालु हैं और कृपालु भी इसलिए मेरी भूल क्षमा करें। इसके पश्चात देवराज इन्द्र ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया ।

इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्घन पूजा की जाने लगी। बृजवासी इस दिन गोवर्घन पर्वत की पूजा करते हैं। गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।

हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं !!  

॥ O' My Lord! May I never forget you ! ॥




Happy Dussehra

दशहरे की परम्परा भगवान राम द्वारा त्रेतायुग में रावण के वध से भले ही आरम्भ हुई हो, पर द्वापरयुग में महाभारत का प्रसिद्ध युद्ध भी इसी दिन आरम्भ हुआ था। पर विजयदशमी सिर्फ इस बात का प्रतीक नहीं है कि अन्याय पर न्याय अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी बल्कि यह बुराई में भी अच्छाई ढूँढ़ने का दिन होता है। !!!۞!!!

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में माँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हे । !!!۞!!!

                                               !!!۞!!! ॥ॐ श्री राम ॥ !!!۞!!!
                                               !!!۞!!! ॐ नम: शिवाय !!!۞!!!
                                           !!!۞!!! ॥ॐ श्री हनुमते नमः ॥ !!!۞!!!

हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" के धेर्य ने आखिर चोर को नेक बना ही दिया ।


उस समय गीता प्रेस गोरखपुर के संपादक हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" थे ।

वे किसी कार्य से कलकत्ता गए ।

लौटते समय एक किशोर उनसे भीख मांगने लगा ।

उसने भूखे होने का हवाला दिया, तो हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" को दया आ गई ।

उन्होंने कुछ रुपए उसे दिए और शेष बचे रुपए जेब में रख लिए ।

जब वे कुछ आगेबढ़े, तो उन्हें लगा कि कोई उनकी जेब छू रहा है ।

उन्होंने तत्काल उस हाथ को पकड़ा और देखाकि यह तो वही किशोर है । किशोर डर से कांपने लगा,
किंतु हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" ने उससे कहा कि तुम्हें और रुपए चाहिए थे, तो पहले ही मांग लेते।
यह कहते हुए उन्होंने बाकी रुपए भी उसे दे दिए।

फिर उसे समझाया कि भूखा कहकर जेब काटने से लोगों का विश्वास भूखों पर से उठ जाएगा ।

हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" के इस दयालु व्यवहार से किशोर को ग्लानि हुई ।

उसने अपने घर की दयनीय दशा के बारे में बताया और काम देने की प्रार्थना की ।

हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" उसे अपने साथ गोरखपुर ले आए और काम पर रख लिया ।

 उसकी आदत के विषय में उन्होंने किसी को नहीं बताया ।

 कुछ दिन बाद किशोर ने अपने किसी साथी के रुपए चुरा लिए। चोरी का पता लगने पर सभी की तलाशी ली जाने   लगी ।

 हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" समझ गए कि यह काम उसी किशोर का है ।

उन्होंने उसकी तलाशी लेने के पहले ही उसे वहां से कोई काम देकररवाना कर दिया ।

 वह हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" की महानता देखकर बहुत शर्मसार हुआ और उसने उनसे क्षमा मांगी ।

 इस प्रकार हनुमान प्रसाद पोद्दार "भाईजी" की विशाल हृदयता ने किशोर को सदा के लिए नेक बना दिया ।

"श्री श्यामानंद प्रभु जी"

!! जय जय श्री राधे !!

श्री श्यामानंद प्रभु का जन्म सन् 1535 ई. को चैत्र पूर्णिमा के दिन पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के अंतर्गत धारेंदाबहादुरपुर ग्राम में हुआ था.

इनके बचपन का नाम दुखी था .

मात्र 18 वर्ष की आयु में ही श्रीकृष्ण-
प्राप्ति की तीव्र इच्छा उत्पन्न होने के कारण इन्होंने घर त्याग दिया.

सन् 1554 ई. में श्री हृदय चैतन्य अधिकारी ठाकुर से दीक्षा लेने के उपरांत इनका नाम कृष्णदास हो गया.

आठ वर्ष तक संपूर्ण भारतवर्ष के तीर्थ करने के बाद दुखी कृष्णदास श्री श्यामसुंदर की वशीभूतता में खिंचकर श्री जीव गोस्वामी की कृपा से वृन्दावन आकर प्रेमपूर्वक रहने लगे .

श्री जीव गोस्वामी ने दुखीकृष्णदास को भक्ति शास्त्र का ज्ञान दिया इसीलिए श्री जीव गोस्वामीजी दुखी कृष्णदास प्रभु के शिक्षा गुरु थे एवं उन्होंने ही इन्हें प्रिया-प्रियतम की नित्य रासलीला के क्षेत्र निधिवन में झाड़ू लगाने की सेवा प्रदान की .

दुखी कृष्णदास सदा श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज- लीला के स्मरण में
निमग्न रहते थे और प्रतिदिन कुंज की सोहिनी और खुरपे से सेवा करते थे.

12 साल तक दुखी कृष्ण दास इस तरहां ठाकुरजी की सेवा करते रहे और उनकी भक्ति मेंदिनों दिन डूबते रहे.


*रास के समय श्री राधारानी का नुपुर का गिरना *

एक दिन जब कृष्णदास अपनी सोहिनी और खुरपा लेकर कुंज में आए तो उन्हें झाड़ू लगाते समय पहले तो रास लीला के निशान मिलते हैं और फिर अनार के पेड के नीचे वह दुर्लभ अलौकिक नूपुर दिखाई पडा, जिसे देखकर वे विस्मित हो गए
उस अति सुन्दर अद्वितीय नुपुर कि चकाचौध से निधिवन प्रकाशमान हो रहा था ,
वे सोचने लगे यह अलौकिक नुपुर किसका है ?

उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी उसे सिर माथे से लगाया,
और उसे उठाकर उन्होंने अपने उत्तरीय में रख लिया और फिर वे रासस्थली की सफाई में लग गए.

जब ठाकुर जी के साथ राधा रानी रास लीला में नाच गा रहें थे,
उसी दौरान राधारानी जब श्रीकृष्ण को अधिक आनंद प्रदान करने के लिए तीव्र गति से नृत्य कर रही थीं.

उस समय रासेश्वरी के बाएं चरण से इन्द्रनील मणियों से जडित उनका मंजुघोष नामक नूपुर रासस्थली में गिर गया, किंतु रासलीला में मग्न होने के कारण उन्हें इस बात का पता न चला . .

नृत्य की समाप्ति पर राधा कृष्ण कुंजों में सजाई हुई शैय्या पर शयन करने चले जाते हैं . और अगली सुबह उठकर वे सब अपने घर
चले जाते हैं .

इधर प्रात: जब राधा रानी को यह मालूम हुआ कि उनके बाये चरण का मंजुघोषा नाम का नुपुर निधिवन में गिर गया है.

थोडी देर पश्चात राधारानी उस खोए हुए नूपुर को ढूंढते हुए अपनी सखियों ललिता, विशाखा आदि के साथ जब वहां पधारीं तो वे लताओं की ओट में खडी हो गई.

और ललिता जी को ब्रह्माणी के वेश में कृष्ण दास के पास भेजा,
तब श्री ललिता सखी दुखी कृष्ण दास के पास पहुँची.
और उनसे कहा, -

" बाबा क्या तुम्हें यहाँ पर कोई नूपुर मिला है?
मुझे दे दो, किशोरी जी का है .

" मंजरी भाव में दुखीकृष्णदास ने डूबे हुए उत्तर दिया,
हम अपने हाथों से प्रियाजी को पहनाएँगी .

इस पर राधारानी के आदेश से ललिताजी ने कृष्णदास को राधाजी का मंत्रप्रदान करके उन्हेंराधाकुंड में स्नान करवाया .

इससे कृष्णदास दिव्य मंजरी के स्वरूप को प्राप्त हो गए.

सखियों ने उन्हें राधारानीजी के समक्ष प्रस्तुत किया.

अपनी स्वामिनी का दर्शन करके कृष्णदास कृतार्थ हो गए.
उन्होंने वह नूपुर राधाजी को लौटा दिया .

राधारानी ने प्रसन्न होकर नूपुर धारण करा उसके पहले
ललिताजी ने उस नूपुर का उनके ललाट से स्पर्श कराया तो उनका तिलक राधारानीजी के चरण की आकृति वाले नूपुर तिलक में परिवर्तित हो गया.

राधारानी ने स्वयं अपने करकमलों द्वारा उस तिलक के मध्य में एक उज्ज्वल बिंदु लगा दिया.
इस तिलक को ललिता सखी ने'श्याम मोहन तिलक' का नाम दिया .

वहीँ काली बिंदी लगाते हैं .

विशाखा सखी ने बताया की दुखीकृष्ण दास जी कनक मंजरी के अवतार हैं.


*राधा रानी के ह्रदय से श्री श्याम सुन्दर का विग्रह प्रकट होना*

राधारानी ने श्री दुखीकृष्ण दास जी को मृत्युलोक में आयु पूर्ण होने तक रहने का जब आदेश दिया तो वे स्वामिनी जी से विरह की कल्पना करते ही रोने लगे.

तब राधारानी ने
उनका ढांढस बंधाने के लिए अपने हृदयकमल से अपने प्राण- धन श्रीश्यामसुंदर के दिव्य विग्रह को प्रकट करके ललिता सखी के माध्यम से श्यामानंद को प्रदान किया.

यह घटना सन् 1578 ई. की वसंत पंचमी वाले दिन की है.

श्यामानंद प्रभु श्यामसुंदर देव के उस श्रीविग्रह को अपनी भजन कुटीर में विराजमान करके उनकी सेवा-अर्चना में जुट गए.

सम्पूर्ण विश्व में श्री श्याम सुन्दर जी ही एक मात्र ऐसे श्री विग्रह हैं जो श्री राधा रानी जी के हृदय से प्रकट हुए हैं

दुखी कृष्ण दास ने जब यह वृतांत श्री जीव गोस्वामी को सुनाया तो किशोरीजी की ऐसी विलक्षण कृपा के बारे में सुनकर जीव गोस्वामी जी कृष्ण भक्ति में पागल हो गये और खुश होकर नृत्य करने लगे .
कृष्ण प्रेम में रोते हुए जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्ण दास से कहा कि -

" तुम इकलौते ऐसे व्यक्ति हो इस संसार में जिसपर श्री राधारानी की ऐसी कृपा हुई है,
और तुम्हारा स्पर्श पाकर में भी उस कृपा को प्राप्त कर रहा हूँ. आज से वैष्णव भक्त तुम्हें श्यामानंद नाम से जानेंगे,
और तुम्हारे तिलक को श्यामानन्दी तिलक.
और श्री राधा रानी ने जो तुम्हें श्री विग्रह प्रदान किया है वो श्यामसुंदर नाम से प्रसिद्ध होंगे और अपने दर्शनों से अपने भक्तों पर कृपा करेंगे .

मन्दिर के पथ के उस पार एक गृह में श्री श्यामानंद प्रभु का समाधि स्थल है .

राधाश्यामसुन्दर जी का मन्दिर वृन्दावन का पहला मन्दिर है जिसने मंगला आरती की शुरुआत की,
और जो आज तक सुचारू रूप से हो रही है .

कार्तिक मास में इस मन्दिर में प्रतिदिन भव्य झाँकियों के दर्शन होते हैं .

और अक्षय तृतीया पर दुर्लभ चन्दन श्रृंगार किया जाता है ...



भगवत्प्रेम की अभिलाषा....


 
आप के अन्दर जब तक दोष है, तब तक अपने को कभी उत्तम नहीं समझना चाहिए | सारे दोषों का मिट जाना मालूम होने पर भी दोषों की खोज करनी चाहिए, तथा जरा-सा भी दोष शूल की तरह हृदय  में चुभना चाहिए |  जब तक किंचितमात्र भी दूषित भाव हृदय में रहे, तब तक सूरदास जी की भांति अपने को महान पातकी ही मानकर प्रभु के सामने रोना चाहिए | मनुष्य शायद न सुने, किसी की भाषा का मर्म न समझ सके,  परन्तु भगवान् में ये सब बातें कोई-सी नहीं हैं | वह सुनते हैं, सबके हृदय  की भाषा का रहस्य समझते हैं, लापरवाही भी नहीं करते और सर्व प्रकार दोष-दुःख दूर करने के उनमें पूर्ण सामर्थ्य भी है, इसलिए मनुष्य को अपने दोष-दुखों का नाश करने के लिए प्रभु से ही प्रार्थना करनी चाहिए | प्रभु अन्तर्यामी हैं, परन्तु प्रार्थना किये बिना,उनके द्वारा सदा किया जानेवाला उपकार हम पर प्रकट नहीं होता | इसमें कोई सन्देह नहीं कि चींटी के चाल के बदले में भगवान् इच्छागति गरुड़ की चाल से ही आते हैं, परन्तु चींटी की भी चाल से उनकी ओर चाल पड़ना तो हमारा ही कार्य है उनकी तरफ अपनी ही चाल से चलना शुरू कर दें, फिर भगवान् अपनी चाल से चलकर उसके पास बात-की-बात में पहुँच जायेंगे |  हमारी मन्द गति के बदले में वे अपनी तेज चाल नहीं छोड़ेंगे | परन्तु उनकी ओर चलना, उन्हें चाहना होगा पहले  हमें भगवान् में अनन्य प्रेम की भिक्षा अनन्य प्रेमी भगवान् से ही माँगनी चाहिए यदि अभिलाषा सच्ची होगी तो अनन्य प्रेम अवश्य मिलेगा | अनन्य प्रेम की आपको अभिलाषा है, यह बड़े ही सौभाग्य और आनन्द की बात है भगवान् में विशुद्ध और अनन्य प्रेम होने की अभिलाषा से बढ़कर कोई सौभाग्य भरी उत्तम अभिलाषा नहीं है | यह सर्वोच्च अभिलाषा है जो मोक्ष तक की अभिलाषा को लात मार देने के बाद उत्पन्न होती है भगवत्प्रेम पंचम पुरुषार्थ है, जो मोक्ष की इच्छा के भी त्याग से होता है और जिसके परे श्री भगवान् के सिवा और कुछ भी नहीं है | विशुद्ध और अनन्य प्रेम की महत्ता कौन कहे, यह प्रेम प्रेमार्नव भगवान् से ही मिलता है दूसरे किस में शक्ति है, जो इस का व्यापार करे |



श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार 'भाईजी'

धन का सदुपयोग ...

भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है | आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करने वाले सेवक मात्र हैं | इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए | दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र  कभी विमुख न लौटें | यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की  सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है | अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए  और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की  सेवा होने में 'निमित्त'  बन रहे हैं |
  आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए, न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं | धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता | नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं | धन या पद का न तो कभी घमंड करना चाहिए और न धन के या पद के बल पर किसी को अपने से नीचा मानकर उसका तिरस्कार करना चाहिए | बल्कि ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें आपसे सहायता पाकर किसी को कभी आपके सामने सकुचाना न पड़े - सिर न झुकाना पड़े | आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है | वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है |
 
 
By:- Hanuman Prasad Poddarji - Bhaiji Gita Press Gorakhpur.

पुरुषोत्तम मास के नियम


पुरुषोत्तम मास के नियम

पुरुषोत्तम मास का दूसरा नाम मल मास है | ‘मल’ कहते हैं पाप को और ‘पुरुषोत्तम’ नाम है भगवान् का | इसलिए हमें इसका अर्थ यों लगाना चाहिए की पापों को छोडकर भगवान पुरुषोत्तम में प्रेम करें और वो ऐसा करें की इस एक महीने का प्रेम अनंत कालके लिए चिरस्थायी हो जाए | भगवान में प्रेम करना ही तो जीवन का परम-पुरुषार्थ है, इसी केलिए तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन और सदसद्विवेक प्राप्त हुआ है | हमारे ऋषियों ने पर्वों और शुभ दिनों की रचना कर उस विवेक को निरंतर जागृत रखने के लिए सुलभ साधन बना दिया है, इसपर भी यदि हम ना चेतें तो हमारी बड़ी भूल है |
इस पुरुषोत्तम मास में परमात्मा का प्रेम प्राप्त करनेके लिए यदि सबही नर-नारी निम्नलिखित नियमों को महीनेभर तक सावधानी के साथ पालें तो उन्हें बहुत कुछ लाभ होने की संभावना है |

१.
प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठें |

२.
गीताजी के पुरुषोत्तम-योग नामक 15 वे अध्याय का प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पाठ करें
| श्रीमद भागवत का पाठ करें, सुनें | संस्कृत के श्लोक ना पढ़ सकें तो अर्थों का ही पाठ करलें |

३.
स्त्री-पुरुष दोनों एक मतसे महीनेभर तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें | जमीनपर सोवें |

४.
प्रतिदिन घंटे भर किसी भी नियत समयपर मौन रहकर अपनी-अपनी रूचि और विश्वास के अनुसार भगवान् का भजन करें |

५.
जान-बूझकर झूठ ना बोलें | किसीकी निंदा ना करें |
६. भोजन और वस्त्रों में जहां तक बन सके, पूरी शुद्धि और सादगी बरतें | पत्तेपर भोजन करें, भोजन में हविष्यान्न ही खाएं |

७.
माता,पिता,गुरु,स्वामी आदि बड़ों के चरणोंमें प्रतिदिन प्रणाम करें | भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की पूजा करें|


पुरुषोत्तम मास में दान देनेका और त्याग करनेका बड़ा महत्त्व माना गया है, इसलिए जहां तक बन सके, जिसके पास जो चीज़ हो वाही योग्य पात्र के प्रति दान देकर परमात्मा की सेवा करनी चाहिए | त्याग करनेमें तो सबसे पहले पापों का त्याग करना ही जरूरी है | जो भाई या बहन हिम्मत करके कर सकें, वे जीवन भर के लिए झूठ, क्रोध और दूसरों की जान-बूझकर बुराई करना छोड़ दें |


जीवन भर का व्रत लेनेकी हिम्मत ना हो सकें तो जितने अधिक दिनों का ले सकें, उतना ही लें | परन्तु जो भाई-बहन दिलकी कमजोरी, इन्द्रियों की आसक्ति, बुरी संगती अथवा बिगड़ी हुयी आदत के कारण मांस खाते हैं और मदिरा-पान करते हैं तथा पर-स्त्री और पर-पुरुष से अनुचित संबंध रखते हैं, उनसे तो हम हाथ-जोड़कर प्रार्थना करते हैं की वे इन बुराईयोंको सदा के लिए छोडकर दयामय प्रभुसे अब तक की भूल के लिए क्षमा मांगे |


जो भाई-बहन ऊपर लिखे सातों नियम जीवन-भर पाल सकें तो पालने की चेष्ठा करें, कम-से-कम चातुर्मास नहीं तो पुरुषोत्तम महीने भर तक तो जरूर पालें और भविष्य में सदा इसे पालने के लिए अपनेको तैयार करें | अपनी कमजोरी देखकर निराश ना हों, दया के सागर और परम करुनामय भगवान का आश्रय लेनेसे असंभव भी संभव हो जाता है* |


*जितने नियम कम-से-कम पालन कर सकें उतने अवश्य ही पालें |
*********************************************************************************** पूर्ण समर्पण , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ३५२ ***********************************************************************************



भजन क्यों नहीं होता ?



जो मनुष्य विषय-भोगो को बाहर से त्याग करके यह मानता है की  'मैंने बहुत बड़ा त्याग किया है, कैसे कैसे महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर घर-द्वार, कुटुंब-परिवार, धन-ऐश्वर्य, पद-अधिकार का परित्याग कर वैराग्य को ग्रहण किया है, वह बाहर से भोग-पदार्थो का त्याग करने वाला होने पर भी वस्तुत मन से भोगो का त्याग नहीं कर पाया है, क्योकि उसके मन में भोगो की स्मृति है और उनकी महता बनी हुई है तभी तो वह अपने को 'बड़ा त्यागी' मानता है | क्या जंगल में या पाखाने में मल त्यागकर आने वाला मनुष्य कभी तनिक भी मन में गौरव करता है की मैंने बड़े महत्व के वास्तु का त्याग किया है ?
क्या उसे उसमे जरा भी अभिमान का अनुभव होता है ? वह तो बस सहज आराम का अनुभव करता है | इसी प्रकार विषय-भोगो में मल बुद्धि या विष-बुद्धि होने पर उनके त्याग में आराम तो मिलता है, पर किसी प्रकार का अभिमान नहीं हो सकता, क्योकि उसका वह त्याग भगवान में महत्व बुद्धि और भोगो में वास्तविक त्याग-बुद्धि होने पर ही होता है | ऐसे पुरुषो का अथवा उनका सत्संग करना चाहिये जो भगवत प्रेम के नशे में चूर होकर या तो संसार को सर्वथा भूल चुके है या जिनको नित्य निरंतर समग्र जगत में केवल अपने प्रियतम के मधुर मनोहर झांकी हो रही है | सत्संग के द्वारा जितना मोह का पर्दा हटेगा या फटेगा, उतना ही विषय-मोह मिटकर भगवान् के और चित्त का आकर्षण होगा और उतनी ही अधिक भगवत भजन में प्रवृति होगी | एवं ज्यो ज्यो भजन में निष्कामता, प्रेम और निरंतरता आएगी, त्यों ही त्यों मोह निशा का अंत समीप आता जायेगा | फिर तो मोह मिटते ही भगवान् ह्रदय में आ विराजेंगे | विराज तो अब भी रहे है, परन्तु हमने अपनी अन्दर की आँखों पर पर्दा डाल रखा है और उनके स्थान पर मलिन काम को बैठा रखा है, इससे वे छिपे हुए है | फिर प्रगट हो जायेंगे और उनके प्रगट होते ही काम-तम भाग जायेगा --

जहाँ काम तह राम नहीं, जहाँ राम नहीं काम | तुलसी कबहू की रही सके, रवि रजनी एक ठाम ||

सर्वार्थ साधक भगवनाम...

  1. मजदूर हाथो से हर प्रकार का काम करते रहे और नाम जपते रहे | घर से काम के स्थान पर जाते -आते नाम जप करे |
  2. उच्च अधिकारी, मिनिस्टर, सेक्रेटरी, जज, मुंसिफ, जिलाधीश, परगना अधिकारी, पोलिश ऑफिसर, रेलवे अफसर तथा कर्मचारी .डाक तार के कार्यकर्ता, आदि सभी कर्मचारी सभी अपना अपना काम करते तथा आते जाते समय भगवान् का नाम जीभ से लेते रहे |
  3. व्यापारी, सेठ साहूकार, उद्योगपति, दलाल आदि सब समय जीभ से भगवान् लेते रहे |
  4. गृहस्थ माँ बहिने चरखा कातते समय, चक्की पिसते समय, पानी भरते समय, गौ सेवा करते समय, बच्चो का पालन करते समय, रसोई बनाते समय, धान कूटते समय तथा घर के अन्य काम करते समय भगवान् का नाम जपती रहे |
  5. पढ़ी लिखी बहने साज श्रींगार बहुत करती है , फैसन परस्त होती जा रही है, यह बहुत बुरा है; पर वे साज श्रींगार करते समय भगवान् का नाम जपे | अध्यापिकाए और शिक्षाअर्थनी छात्राए स्कूल कॉलेज जाते आते समय भगवान् का नाम ले |
  6. सिनेमा देखना बहुत बुरा है -- पाप है, पर सिनेमा देखने वाले, रस्ते में आते जाते समय तथा सिनेमा देखते समय जीभ से भगवान् का नाम जपे |
  7. इसी प्रकार ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, सूद्र सभी नर नारी सब समय भगवान् का नाम ले | आवस्यकता हो तोह जेब में छोटी या पूरी १०८ मनियो की माला रखे |
  8. सब लोग अपने अपने घर में, गॉव में , मोहल्ले में, अडोस पडोस में, मिलने जुलने वालो में इसका प्रचार करे | यह महान पुण्य का परम पवित्र कार्य है | याद रखना चाहिए - भगवान्नाम से सारे पाप-ताप, दुःख संकंट, अभाव-अभियोग मिटकर सर्वार्थसिद्धि मिल सकती है, मोक्ष तथा भगवत प्रेम की प्राप्ति हो सकती है |
  9. मनुष्यों में वे भाग्यवान और निश्चय ही कृतार्थ है जो इस कलियुग में स्वयं भगवान् के नामका स्मरण करते है और दुसरो से करवाते है |
  10. इस महान कार्य में सभी लोग लगे , यह करबद्ध प्रार्थना है |

लाला की शरारते.....

एक गोपी के घर लाला माखन खा रहे थे
उस समय गोपी ने लाला को पकड लिया


तब कन्हैया बोले- तेरे धनी की सौगंध खा कर कहता हूँ

अब फिर कभी भी तेरे घर में नहीं आऊंगा

गोपी ने कहा - मेरे धनी की सौगंध क्यों खाता है ?
कन्हैया ने कहा. तेरे बाप की सौगंध, बस गोपी और ज्यादा खीझ जाती है और लाला को धमकाती है

परन्तु तू मेरे घर आया ही क्यों ?

कन्हैया ने कहा - अरी सखी !
तू रोज कथा में जाती है, फिरभी तू मेरा तेरा छोडती नहीं - इस घर का मै धनी हूँ

यह घर मेरा है

गोपी को आनंद हुआ कि मेरे घर को कन्हैया अपना घर मानता है, कन्हैया तो सबका मालिक है,
सभी घर उसी के है

उसको किसी कि आज्ञा लेने कि जरूरत नहीं
गोपी कहती है - तुने माखन क्यों खाया ?

लाला ने कहा - माखन किसने खाया है ?
इस माखन में चींटी चढ़ गई थी तो उसे निकलने को हाथ डाला

इतने में ही तू टपक पड़ी

गोपी कहती है ! परन्तु लाला !
तेरे ओंठो के उपर भी तो माखन चिपका हुआ है

कन्हैया ने कहा - चींटी निकालता था,
तभी ओंठो के उपर भी मक्खी बैठ गई,
उसको उड़ाने लगा तो माखन ओंठो पर लग गया होगा


कन्हैया जैसे बोलतेहै, ऐसा बोलना किसी को आता नहीं. कन्हैया जैसे चलते है,
वैसे चलना भी किसी को आता नहीं.
गोपी ने पीछे लाला को घर में खम्भे के साथ डोरी से बाँध दिया,
कन्हैया का श्रीअंग बहुत ही कोमल है


गोपी ने जब डोरी कस कर बाँधी तो लाला कि आँखमें पानी आ गया. गोपी को दया आई,
उसने लाला से पूछा - लाला! तुझे कोई तकलीफ है क्या ?

लाला ने गर्दन हिला कर कहा - मुझे बहुत दुःख हो रहा है,
डोरी जरा ढीली करो


गोपी ने विचार किया कि लाला को डोरी से कस कर बाधना ठीक नहीं,
मेरे लाला को दुःख होगा

इसलिए गोपी ने डोरी थोड़ी ढीली रखी और सखियो को खबर देने गई के मैंने लाला को बांधा है

तुम लाला को बांधो परन्तु किसी से कहना नहीं, तुम खूब भक्ति करो,
परन्तु उसे प्रकाशित मत करो, भक्ति प्रकाशित हो जाएगी तो भगवान चले जायेंगे,
भक्ति का प्रकाश होने से भक्ति बढती नहीं , भक्ति में आनंद
आता नहीं

बाल कृष्ण सूक्ष्म शरीर करके डोरी से बहार निकल गए और गोपी को अंगूठा दिखाकर कहा,
तुझे बांधना ही कहा आता है ?

गोपी कहती है - तो मुझे बता, किस तरह से बांधना चाहिए  

गोपी को तो लाला के साथ खेल करना था

लाला गोपी को बांधते है...
योगीजन मन से....
श्री कृष्ण का स्पर्श करते है तो समाधि लग जाती है.
यहाँ तो गोपी को प्रत्यक्ष श्री कृष्ण का स्पर्श हुआ है.

गोपी लाला के दर्शन में तल्लीन हो जाती है. गोपी को ब्रह्म - सम्बन्ध हो जाता है.
लाला ने गोपी को बाँध दिया.

गोपी कहती है की लाला छोड़! छोड़!
लाला कहते है - मुझे बांधना आता है.
छोड़ना तो आता ही नहीं


यह जीव एक ऐसा है, जिसको छोड़ना आता है,
चाहे जितना प्रगाढ़ सम्बन्ध हो परन्तु स्वार्थ सिद्ध होने पर उसको भी छोड़ सकता है,
परमात्मा एक बार बाँधने के बाद छोड़ते नहीं


जय श्री कृष्ण
राधे राधे जी
जय जय राधे राधे...
एक व्यक्ति ने जब एक संत के बारे में सुना तो वह पाकिस्तान से रुहानी इत्र लेकर वृन्दवन आया.

इत्र सबसे महगा था जिस समय वह संत से मिलने गया उस समय वे भावराज में थे आँखे बंद करे भगवान राधा-कृष्ण जी के होली उत्सव में लीला में थे.

उस व्यक्ति ने देखा की ये तो ध्यान में है .
तो उसने वह इत्र की शीशी उनके पास में रख दी और पास में बैठकर, संत की समाधी खुलने का इंतजार करने लगा.

तभी संत ने भावराज में देखा राधा जी अपनी पिचकारी भरकर कृष्ण जी के पास आई,
तुंरत कृष्ण जी ने राधा जी के ऊपर पिचकारी चला दी.

राधा जी सिर से पैर तक रंग में नहा गई अब तुरंत राधा जी ने अपनी पिचकारी कृष्ण जी पर चला दी पर राधा जी की पिचकारी खाली थी.

संत को लगा की राधा जी तो रंग डाल ही नहीं पा रही है संत ने तुरंत वह इत्र की शीशी खोली और राधा जी की पिचकारी में डाल दी और तुरंत राधा जी ने पिचकारी कृष्ण जी पर चला दी, पर उस भक्त को वह इत्र नीचे जमीन पर गिरता दिखाई दिया उसने सोचा में इतने दूर से इतना महगा इत्र लेकर आया था पर इन्होने तो इसे बिना देखे ही सारा का सारा रेत में गिरा दिया पर वह कुछ भी ना बोल सका.

थोड़ी देर बाद संत ने आँखे खोली उस व्यक्ति ने उन्हे प्रणाम किया.

संत ने कहा- आप अंदर जाकर बिहारी जी के दर्शन कर आये.

वह व्यक्ति जैसे ही अंदर गया तो क्या देखता है की सारे मंदिर में वही इत्र महक रहा है और जब उसने बिहारी जी को देखा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ बिहारी जी सिर से लेकर पैर तक इत्र में नहा रहे थे
उसकी
आँखों से प्रेम अश्रु बहने लगे और वह सारी लीला समझ गया तुरंत बाहर आकर संत के चरणो मे गिर पड़ा और उन्हे बार-बार प्रणाम करने लगा.

बाँके बिहारी लाल की जय....
क्रोधकी अधिकता के नाश का उपाय पूछा सो निम्नलिखित साधनोँको काममेँ लानेसे क्रोध का नाश हो जाता है ।

(१) सब जगह एक वासुदेव भगवान का ही दर्शन करे । जब भगवानको छोड़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीँ रहेगी तब क्रोध किसपर होगा ?

(२) यदि सब कुछ नारायण है तब फिर नारायणपर क्रोध कैसे हो ! सबके नारायण स्वरुप होने के कारण मैँ सबका दास हूँ । उस नारायणकी इच्छा के अनुसार ही सब कुछ होता है और वही प्रभु सबकुछ करता है, तब फिर क्रोध किसपर किया जाय?

(३) नारायणकी शरण होना चाहिए, जो कुछ होता है सो उसी की आज्ञासे होता है । अपनी इच्छासे करने पर नारायण की शरणागति मेँ दोष आता है । मालिक अपने आप चाहे सो करेँ, मैँ निश्चिन्त हूँ । ऐसी भावना होनी चाहिए । चाहना करनेसे क्रोध होता है । इच्छा बिना क्रोध नहीँ हो सकता ।

(४) सब कुछ काल भगवानके मुख मेँ देखना चाहिए । थोड़े दिन के लिए मैँ क्रोध क्योँ करुँ ? संसार सब अनित्य है, समयानुसार सभी का नाश होनेवाला है, जीवन बहुत थोड़ा है, किसी के मनको कष्ट पहुँचे ऐसा काम क्योँ करना चाहिए ?

(५) जो अपनेसे बड़ेपर क्रोध आवे तो उससे क्षमा माँगे और उसके चरणोँमेँ गिर जाय और जो वह अपने ऊपर क्रोध करे तो भी उसके चरणोँमेँ गिर जाय तथा हँसकर प्रसन्न मनसे बातेँ करे या चुप हो जाय ।

(६) अपने से छोटेपर क्रोध आवे तो उसके हित के लिए केवल दिखानेमात्र के लिए ही वह क्रोध होना चाहिए । अपने स्वार्थ का त्याग होना चाहिए, इच्छा ही क्रोधमेँ हेतु है, इससे इच्छाका नाश हो, ऐसा उपाय करना चाहिए । भगवान के स्वरुप और नाम का चिन्तन हुए बिना ऐसा होना कठिन है |

सेठ जयदयाल जी गोयन्दका, गीताप्रेस गोरखपुर

ठाकुर जी और उनके भक्त की एक निराली कथा .......



जय श्री कृष्ण
ठाकुर जी और उनके भक्त की एक निराली कथा .......

एक लडकी थी जो कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी, बचपन से ही कृष्ण भगवान का भजन करती थी, भक्ति करती थी, भक्ति करते-करते बड़ी हो गई, भगवान की कृपासे उसका विवाह भी श्रीधाम वृंदावन में किसी अच्छे घर में हो गया.

विवाह होकर पहली बार वृंदावन गई, पर नई दुल्हन होने से कही जा न सकी, और मायके चलि गई.
और वो दिन भी आया जब उसका पति उसे लेने उसके मायके आया,
अपने पति के साथ फिर वृंदावन पहुँच गई, पहुँचते पहुँचते उसे शाम हो गई, पति वृंदावन में यमुना किनारे रूककर कहने लगा -
देखो! शाम का समय है में यमुना जी मे स्नान करके अभी आता हूँ,
तुम इस पेड़ के नीचे बैठ जाओ और सामान की देखरेख करना मै थोड़े ही समय में आ जाऊँगा यही सामने ही हूँ, कुछ लगे तो मुझे आवाज देदेना, इतना कहकर पति चला गया और वह लडकी बैठ गई.

अब एक हाथ लंबा घूँघट निकाल रखा है, क्योकि गाँव है,ससुराल है और वही बैठ गई, मन ही मन विचार करने लगी - कि
देखो!ठाकुर जी की कितनी कृपाहै उन्हें मैंने बचपन से भजा और उनकी कृपा से मेरा विवाह भी श्री धाम वृंदावन में हो गया.
मैं इतने वर्षों से ठाकुर जी को मानती हूँ परन्तु अब तक उनसेकोई रिश्ता नहीं जोड़ा?

फिर सोचती है ठाकुर जी की उम्र क्या होगी ?
लगभग १६ वर्ष के होंगे, मेरे पति २० वर्ष केहै उनसे थोड़े से छोटे है, इसलिए मेरे पति के छोटे भाई की तरह हुए, और मेरे देवर की तरह, तो आज से ठाकुर जी मेरे देवर हुए, अब तो ठाकुर जी से नया सम्बन्ध जोड़कर बड़ी प्रसन्न हुई और मन ही मन ठाकुर जी से कहने लगी -

देखो ठाकुर जी ! आज से मै तुम्हारी भाभी और तुम मेरे देवर हो गए, अब वो समय आएगा जब तुम मुझे भाभी-भाभी कहकर पुकारोगे. इतना सोच ही रही थी तभी एक १०- १५ वर्ष का बालक आया और उस लडकी से बोला - भाभी-भाभी !
लडकी अचानक अपने भाव से बाहर आई और सोचने लगी वृंदावन में तो मै नई हूँ ये भाभी कहकर कौन बुला रहा है,
नई थी इसलिए घूँघट उठकर नहीं देखा कि गाँव के किसी बड़े-बूढ़े ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी.

अब वह बालक बार-बार कहता पर वह उत्तर न देती बालक पास आया और बोला -
भाभी! नेक अपना चेहरा तो देखाय दे,
अब वह सोचने लगी अरे ये बालक तो बड़ी जिद कर रहा है इसलिए कस केघूँघट पकड़कर बैठ गई कि कही घूँघट उठकर देखन ले, लेकिन उस बालक ने जबरजस्ती घूँघट उठकर चेहरा देखा और भाग गया.

थोड़ी देर में उसका पति आ गया, उसनेसारी बात अपने पतिसे कही.
पति नेकहा - तुमने मुझे आवाज क्यों नहीं दी ? लड़की बोली - वह तो इतनेमें भाग ही गया था.

पति बोला - चिंता मत करो, वृंदावन बहुत बड़ा थोड़े ही है ,
कभी किसी गली में खेलता मिल गया तो हड्डी पसली एक कर दूँगा फिर कभी ऐसा नहीं कर सकेगा.
तुम्हे जहाँ भी दिखे, मुझे जरुर बताना.

फिर दोनों घर गए,
कुछ दिन बाद उसकी सास नेअपने बेटे से कहा- बेटा! देख तेरा विवाह हो गया, बहू मायके से भी आ गई,
पर तुम दोनों अभी तक बाँके बिहारी जी केदर्शन के लिए नहीं गए कल जाकर बहू को दर्शन कराकर लाना. अब अगले दिन दोनों पति पत्नी ठाकुर जी के दर्शन केलिए मंदिर जाते है मंदिर में बहुत भीड़ थी,

लड़का कहने लगा -
देखो! तुम स्त्रियों के साथ आगे जाकर दर्शन करो, में भी आता हूँ अब वह आगे गई पर घूंघट नहीं उठाती उसे डर लगता कोई बड़ा बुढा देखेगा तो कहेगा नई बहू घूँघट के बिना घूम रही है.

बहूत देर हो गई पीछे से पति ने आकर कहा -
अरी बाबली ! बिहारी जी सामनेहै, घूँघट काहे नाय खोले,घूँघट नाय खोलेगी तो दर्शन कैसे करेगी,

अब उसने अपना घूँघट उठाया और जो बाँके बिहारी जी की ओर देखातो बाँके बिहारी जी कि जगह वही बालक मुस्कुराता हुआ दिखा तो एकदम से चिल्लाने लगी - सुनिये जल्दी आओ!
जल्दी आओ !

पति पीछेसे भागा- भागा आया बोला क्या हुआ?
लड़की बोली - उस दिन जो मुझे भाभी-भाभी कहकर भागा था वह बालक मिल गया.

पति ने कहा - कहाँ है ,अभी उसे देखता हूँ ?
तो ठाकुर जी की ओर इशारा करके बोली- ये रहा, आपके सामनेही तो है,

उसके पति ने जो देखा तो अवाक रह गया और वही मंदिर में ही अपनी पत्नी के चरणों में गिर पड़ा बोला तुम धन्य हो वास्तव में तुम्हारे ह्रदय में सच्चा भाव ठाकुर जी के प्रति है,
मै इतने वर्षों से वृंदावन मै हूँ मुझे आज तक उनकेदर्शन नहीं हुए और तेरा भाव इतना उच्च है कि बिहारी जी के तुझे दर्शन हुए..................................

भक्त और भगवान् की जय .........

कल्याणका निश्चित उपाय

।। श्रीहरिः ।।
कल्याणका निश्चित उपाय
भगवान् ने जीव पर कृपा करके उसको अपना कल्याण करनेके लिए हीमनुष्यशरीर दिया है । अपना कल्याण करनेके सिवाय मनुष्यजन्मकादूसरा कोई प्रयोजन है ही नहीं । शरीर, धन-संपत्ति, जमीन-मकान, स्त्री-पुत्रआदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब मिलने औरबिछुडनेवाली हैं । अतः कोई कितना ही बड़ा धनवान बन जाय, बलवानबन जाय, विद्वान बन जाय, ऊँचे पदवाला बन जाय, बड़े कुटुम्बवाला बनजाय, पर अपने कल्याणके बिना ये सब-की-सब वस्तुएँ अपने कुछ कामन आयेंगी । बिना दुल्हेकी बरातकी तरह सम्पूर्ण सांसारिक भोग व्यर्थ हैं ।इसलिए मनुष्यका खास कर्त्तव्य है—अपना कल्याण करना ।

एक मार्मिक बात है कि अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतंत्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है । कारण कि भगवान् जीवको मनुष्यशरीर देते हैं तो उसके साथ ही अपना कल्याण करनेकी स्वतंत्रता, सामर्थ्य, योग्यता और अधिकार भी प्रदान करते हैं ।

अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य अपना कल्याण करनेके लिए क्या करें ?
इसका उत्तर है कि यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढतासे स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा—
१- मेरा कुछ भी नहीं है ।
२- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए ।
३- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
४- केवल भगवान् ही मेरे हैं ।
मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको अपना मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवनमें निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।
जब मेरा कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किस वस्तुकी चाहना करें ? अतः ‘मेरेको कुछ भी नहीं चहिये’—ऐसा स्वीकार करते ही जीवनमें निष्कामता आ जाती है । निष्कामता आते ही मनुष्य योगी हो जाता है अर्थात् उसको समत्वरूप योगकी प्राप्ति हो जाती है—‘समत्वं योग उच्यते’ ( गीता २/४८ ) । कोई भी कामना न होनेसे उसको चित्तवृतिनिरोधरूप योगकी भी प्राप्ति हो जाती है—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ ( योगदर्शन १/२ ) । मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः असंग है—‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ ( बृहदा. ४/३/१५ ) । अतः मिलने और बिछुड़नेवाले किसी भी वस्तु-व्यक्तिके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे मनुष्यको अपनी असंगताका अनुभव हो जाता है । असंगताका अनुभव होनेपर वह ज्ञानी हो जाता है ।

जीवमात्र परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं । भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है । इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है ।
धर्मात्मा, योगी, ज्ञानी और भक्त होनेमें ही मनुष्यका कल्याण निहित है । ऐसा होनेमें कठिनाई भी नहीं है; क्योंकि वास्तवमें मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः निर्दोष, निष्काम, असंग और भगवान् का अंश है । तात्पर्य है कि हमारा स्वरुप सत्तामात्र है । उस सत्तामें निर्दोषता, निष्कामता और असंगता स्वतःसिद्ध है और वह सत्ता भगवान् का अंश है । इसलिए साधकका कर्तव्य है कि वह उपर्युक्त चारों बातोंको दृढ़तासे स्वीकार कर ले । फिर उसका कल्याण निश्चित है ।
—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे

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याद रखो

याद रखो


तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीका कभी कुछ भी अनिष्ट हो जाय या उसे दुःख पहुँच जाय तो इसके लिये बहुत ही पश्चात्ताप करो ! यह ख़याल मत करो कि उसके भाग्यमें तो दुःख बदा ही था, मैं तो निमित्तमात्र हूँ, मैं निमित्त न बनता तो उसको कर्मका फल ही कैसे मिलता, उसके भाग्य से ही ऐसा हुआ है, मेरा इसमें क्या दोष है, उसके भाग्यमें जो कुछ भी हो इससे तुम्हें मतलब नहीं ! तुम्हारे लिये ईश्वर और शास्त्रकी यही आज्ञा है कि तुम किसीका अनिष्ट न करो! तुम किसीका बुरा करते हो तो अपराध करते हो और इसका दण्ड तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा; उसे कर्मफल भुगतानेके लिये ईश्वर आप ही कोई दूसरा निमित्त बनाते, तुमने निमित्त बनकर पापका बोझा क्यों उठाया?


याद रखो कि तुम्हें जब दुसरेके द्वारा जरा-सा भी कष्ट मिलता है, तब तुम्हें कितना दुःख होता है, इसी प्रकार उसे भी होता है! इसलिये कभी भूलकर भी किसीके अनिष्टकी भावना ही न करो, ईश्वरसे सदा यह प्रार्थना करते रहो कि ' हे भगवन् ! मुझे ऐसी सदबुद्धि दो जिससे मैं तुम्हारी सृष्टिमें तुम्हारी किसी भी संतानका अनिष्ट करने या उसे दुःख पहुँचानेमें कारण न बनूँ ! सदैव सबकी सच्ची हित-कामना करो और यथासाध्य सेवा करनेकी वृत्ति रखो! कोढ़ी, अपाहिज, दु;खी-दरिद्रको देखकर यह समझकर कि 'यह अपने बुरे कर्मोंका फल भोग रहा है; जैसा किया था वैसा ही पाता है'-- उसकी उपेक्षा न करो, उससे घृणा न करो और रुखा व्यवहार करके उसे कभी कष्ट न पहुँचाओ ! वह चाहे पूर्वका कितना ही पापी क्यों न हो, तुम्हारा काम उसके पाप देखनेका नहीं है, तुम्हारा कर्तव्य तो अपनी शक्तिके अनुसार उसकी भलाई करना तथा उसकी सेवा करना ही है! यही भगवान् की तुम्हारे प्रति आज्ञा है ! यह न कर सको तो कम-से-कम इतना तो जरुर ख़याल रखो जिससे तुम्हारे द्वारा न तो किसीको कुछ भी कष्ट पहुँचे और न किसका अनिष्ट ही हो! तुम किसीसे घृणा करके उसे दुःख पहुँचाते हो तो पाप करते हो, जिसका बुरा फल तुम्हें जरुर भोगना पड़ेगा !

नित्य लीलालीन श्रधेय भाई श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्धार , गीता प्रेस गोरखपुर के प्रवचनों से लिया हुआ .....

मानव का परमात्मा से अटूट सम्बन्ध
संत कबीर ने एक पद में लिखा है "पानी बिच मीन पियासी मोहे सुनी सुनी आवे हांसी" | रस स्वरुप परमात्मा में से उद्भूत हुए हम रस स्वरुप परमात्मा में स्थित है | उन्ही के द्वारा सुरक्षित, संचालित, पालित हैं और रस के अभाव में कहाँ-कहाँ भटकते फिर रहे हैं ! तो इस दशा को मिटाना हम लोगों के लिए आवश्यक है जिसमें लगता है कि हम उससे बिछुड़ गए हैं | उस रस स्वरुप परमात्मा से हम बिछुड़ गए हैं, यह सत्य नहीं है | यह केवल भ्रम है, क्योंकि बिछुड़ जाते तो हमारी सत्ता ही नहीं होती | वह जो हमारा उद्गम है, Generation of life है, उससे एक क्षण के लिए भी सम्बन्ध टूट जाय तो हमारी सत्ता ख़त्म हो जाती, अस्तित्व ही नहीं रहता | तो किसी भी काल में सम्बन्ध टूटा नहीं है और न कभी टूटेगा | वह टूटने वाला है ही नहीं | द्रश्य से जो सम्बन्ध जुड़ा हुआ प्रतीत हो रहा है वह भी कोरा भ्रम है |परमात्मा से कभी सम्बन्ध टूटा नहीं, मिटा नहीं, छूटा नहीं, टूटेगा नहीं | वे तो छोड़ते ही नहीं हैं, वे कैसे छोड़ेंगे | स्वामीजी महाराज अपने शानदार व्यक्तित्व (personality) के प्रभाव में आ जाते तो कहते कि परमात्मा की हिम्मत नहीं है कि हमसे सम्बन्ध तोड़ दे और अपनी करूणा कि गोद से निकाल कर हमको फेंक दें | अगर ऐसा कर सकेंगे तो अनंत माधुर्यवान का उनका विशेषण ख़त्म हो जायगा | अनंत माधुर्यवान किसको कहते हैं ? जो केवल अपने स्वभाव से ही पतित से पतित को भी अपनी करूणा से संभाल कर रखता है | हम पतित से पतित हो सकते हैं लेकिन उनके अनंत माधुर्य की जो विशेषता है, उसको वे ख़त्म नहीं करेंगे |मानव का परमात्मा से अटूट सम्बन्धसंत कबीर ने एक पद में लिखा है "पानी बिच मीन पियासी मोहे सुनी सुनी आवे हांसी" | रस स्वरुप परमात्मा में से उद्भूत हुए हम रस स्वरुप परमात्मा में स्थित है | उन्ही के द्वारा सुरक्षित, संचालित, पालित हैं और रस के अभाव में कहाँ-कहाँ भटकते फिर रहे हैं ! तो इस दशा को मिटाना हम लोगों के लिए आवश्यक है जिसमें लगता है कि हम उससे बिछुड़ गए हैं | उस रस स्वरुप परमात्मा से हम बिछुड़ गए हैं, यह सत्य नहीं है | यह केवल भ्रम है, क्योंकि बिछुड़ जाते तो हमारी सत्ता ही नहीं होती | वह जो हमारा उद्गम है, Generation of life है, उससे एक क्षण के लिए भी सम्बन्ध टूट जाय तो हमारी सत्ता ख़त्म हो जाती, अस्तित्व ही नहीं रहता | तो किसी भी काल में सम्बन्ध टूटा नहीं है और न कभी टूटेगा | वह टूटने वाला है ही नहीं | द्रश्य से जो सम्बन्ध जुड़ा हुआ प्रतीत हो रहा है वह भी कोरा भ्रम है |परमात्मा से कभी सम्बन्ध टूटा नहीं, मिटा नहीं, छूटा नहीं, टूटेगा नहीं | वे तो छोड़ते ही नहीं हैं, वे कैसे छोड़ेंगे | स्वामीजी महाराज अपने शानदार व्यक्तित्व (personality) के प्रभाव में आ जाते तो कहते कि परमात्मा की हिम्मत नहीं है कि हमसे सम्बन्ध तोड़ दे और अपनी करूणा कि गोद से निकाल कर हमको फेंक दें | अगर ऐसा कर सकेंगे तो अनंत माधुर्यवान का उनका विशेषण ख़त्म हो जायगा | अनंत माधुर्यवान किसको कहते हैं ? जो केवल अपने स्वभाव से ही पतित से पतित को भी अपनी करूणा से संभाल कर रखता है | हम पतित से पतित हो सकते हैं लेकिन उनके अनंत माधुर्य की जो विशेषता है, उसको वे ख़त्म नहीं करेंगे |
From page 104-105 of book जीवन-विवेचन भाग १ ख, written by Shri Devaki Mataji, foremost disciple of Swami Sharnanandji Maharaj


॥ श्रीहरिः ॥


*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*

(१) भगवद्भक्तोँ द्वारा श्रीभगवानके गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातेँ सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है । भक्तोँके संगके अभावमेँ शास्त्रोँका अभ्यास ही सत्संग के समान है ।

(२) श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरंतर करनेके अभ्याससे भगवानमेँ प्रेम हो सकता है ।

(३) श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है ।

(४) श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमेँ प्रेम हो सकता है । शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिए ।

(५) भगवानके प्रेमी भक्तोँसे सुनी हुई और शास्त्रोँमेँ पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातेँ निष्कामभावसे लोगोँमेँ कथन करनेसे भगवानमेँ बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है ।

उपर्युक्त पाँचोँ साधनोँमेँ से यदि एकका भी भलीभाँति आचरण किया जाय तो प्रेम होना संभव है ।

मान-अपमानको समान समझकर निष्कामभावसे सबको भगवानका स्वरुप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिए ।योँ करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है । सबमेँ भगवानका भाव होनेपर किसीपर भी क्रोध नहीँ हो
सकता है ।

यदि क्रोध होता है तो समझना चाहिए कि अभी वह भाव नहीँ हुआ । चित्तमेँ कभी उद्वेग नहीँ होना चाहिए । जो
कुछ हो, उसीमेँ आनंद मानना चाहिए, क्योँकि सभी कुछ उस प्रभुकी आज्ञासे और उसके मतके अनुकूल ही होता है ।

यदि प्रभुके अनुकूल होता है तो फिर हमको भी उसकी अनुकूलतामेँ अनुकूल ही रहना चाहिए । उस परमात्माके
प्रतिकूल और उसकी आज्ञा बिना कुछ भी होना संभव नहीँ, इस प्रकार निश्चय करके प्रभुकी प्रसन्नतामेँ प्रसन्न
होकर सब समय आनंदमेँ मग्न रहना चाहिए ।

(परमार्थ-पत्रावली-भाग-१)

गीता जी का महत्त्व




||श्रीहरिः॥
* गीताजी की आज्ञा भगवानकीआज्ञा समझनी चाहिए।

* मेरी दृष्टिमेँ गीतासे बढ़कर संसारमेँ और कोई शास्त्र है ही नहीँ, गीता वेदसे भी बढ़कर है।

*गीता भगवानकी साक्षात वाङ्गमयी मूर्ति है

*गीता भगवानके साक्षात श्वास है


*गीताजीका अर्थसहित, भावसहित अवश्य ही मनन करना चाहिए।


*गीता हमलोगोँको त्याग सिखलाती है-आसक्तिका त्याग, अहंताका त्याग, ममताका त्याग


*जिस तरह भगवानका सबमेँ प्रवेश है यानी भगवान व्यापक हैँ,उसी तरह अपने लोगोँका गीतामेँ प्रवेश होना चाहिए यानी हमारे रोम-रोममेँ गीता होनी चाहिए।


*कल्याण तो इनमेँसे किसी एक ही बातसे हो जाय-
()गीताजीमेँ प्रवेश हो जाय,बस इतनेमेँ ही मामला समाप्त है
() सबको नारायणका स्वरुप समझकर सेवा करे,इतनेमेँ ही कल्याण हो जायगा।
() गीताजीका एक ही श्लोक धारण कर ले,इतनेमेँ ही काम बन जायगा

*गीताका ग्यान,गोविँद का ध्यान गंगा का स्नान गौका दान गायत्रीका गान-ये पाँचो बहुत उत्तम हैँ सभी कल्याण करनेवाली है।

*गीता के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए।

*गीताका प्रचार लोगोँमेँकरना चाहिए।भगवानकी भक्तिका प्रचार करना,लोगोँको भक्तिमार्गमेँ लगाना इससे बढ़कर कोई काम नहीँ है।

*गीता-प्रचारको सभी बातोँसे ऊँची समझकर भगवान कहते हैँ-
तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता मे तस्मादन्यः प्रियतरो भूवि॥(गीता 18.69)
उससे (गीता प्रचारकसे) बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योँमेँ कोई भी नहीँ है;तथा पृथ्वीभरमेँ उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमेँ होगा भी नहीँ।

*गीताका जो प्रचार करते हैँ तथा जो लोगोँको इसमेँ लगाते हैँ,उनसे बढ़कर संसारमेँ कोई भी नहीँ है।

*गीता-प्रचार करनेवाले लोगोँसे बढ़कर मेरा प्यारा कोई नहीँ है।

*गीताकी पुस्तकको खूब आदर देना चाहिए।

*गीताको भगवान से भी बढ़कर बतावेँ तो भगवान नाराज नहीँ होँगे।

*गीतामेँ स्नान करनेवाला संसारका उद्धार कर सकता है,गीता गायत्रीसे भी बढ़कर है।


*गीता सुनते हुए मरनेवाला पाठ करनेवाला अर्थसहित पाठ करनेवाला अर्थ समझनेवाला धारण करनेवाला-ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैँ।

*गीता निष्पक्ष ग्रंथ है।वाममार्गकी भी गीता निँदा नहीँ करती।

*सारे शास्त्र दब जायँगे तो गीता जीती-जागती रह जायगी।

*गीताके प्रचारके लिए तो हमेँ सेनाकी तरह तैयार हो जाना चाहिए।

*मैँ गीता-गीता कहता रहता हूँ, कोई कहे कि पागल हो गये क्या?इस पागलपनमेँ भी मज *गीता का पाठ सुननेवाला भी मुक्त हो जाता है।

*गली-गलीमेँ गीता-ही-गीता हो जाय,ऐसा कोई भी घर बाकी नहीँ रहने दे जिस घर मेँ गीता हो।जिस घरमेँ गीता नहीँ, वह घर श्मशान के समान है।

*जिस घर मेँ गीता का पाठ नहीँ हो, वह यमपुरी के समान है।

*क्रिया, कण्ठ वाणी तथा हृदयमेँ गीता धारण करनी चाहिए।

*गीता कंठस्थ कर लेँ हृदय मेँ धारण कर ले गीता के सिद्धांत और उसके भाव एक हैँ।

*एक गीताके द्वारा हजारोँ-लाखोँ-करोड़ोँका कल्याण हो सकता है,इसकी बड़ी विलक्षणता है।

*गीतारुपी वृक्ष को सीँचो, यह संसारको काटता है।

*सबके हृदय कंठमेँ गीता बसा देवेँ।

*मेरा जीवन प्राण-सबकुछ गीता है।एक तरफ सब धन एक तरफ गीता होनेपर भी सांसारिक धनसे गीताकी तुलना नहीँ की जा सकती।

*गीता की स्तुति इस प्रकार गावेँ-
त्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
गीता पोषण करती है इसलिए माता है गीता रक्षा करती है इसलिए पिता है।भाई तो धोखा दे सकता है गीता धोखा नहीँ देती। मौकेपर सखा भी साथ छोड़ देते हैँ,पर गीता नहीँ छोड़ती। यही असली विद्या है जिसके पास गीता धन है उसके पास सबकुछ है।

*गीता भगवानका हृदय वाणी श्वास आदेश सबकुछ है।

*हमारा सर्वस्व गीता है। सारा धन भले ही चला जाय गीता हमारे पास रह जाय।

*गीताजी मेँ एक-एक साधन की अंतिम सीमातक का साधन लिखा है।

*मेरे तो भगवद्गीता ही आधार है।

*परमात्माके नामका जप गीताके अभ्यास से प्रत्यक्ष लाभ होता है,इससे बढ़कर संसारमेँ कोई नहीँ है।सत्संग अच्छे पुरुषोँका संग इसकी जड़ है,परमात्माका ध्यान इसका फल है।

*प्रथम तो गीताका प्रचार अपनी आत्मामेँ करना चाहिए। पहले सिपाही बनकर कवायद सीखेँगे तभी तो कमांडर बनकर सिखायेँगे। आप जितनी मदद चाहेँ उतनी मिल सकती है। एक ही व्यक्ति स्वामी शंकराचार्यजीने कितना प्रचार किया,भगवान की शक्ति थी। *हरेक प्रकारसे गीताका प्रचार करना चाहिए।भगवानकी भक्तिके सभी अधिकारी हैँ।गीता बालक, स्त्री, वृद्ध, युवा-सभीके लिए है।

*सार यही है कि भगवानके कामके लिए कटिबद्ध होकर लग जाना चाहिए।स्वधर्मे निधनं श्रेयः अपने धर्म-पालनमेँ मरना भी पड़े तो कल्याण है। बंदरोँने भगवानका काम किया, उनमेँ क्या बुद्धि थी।गीताका प्रचार भगवानका ही काम है।निमित्त कोई भी बन जाय,भगवानकी शक्तिको मत भूलो 'तव प्रताप बल नाथ' मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाके ठोकर मारकर काम करो,फिर देखो भगवान पीछे-पीछे फिरते हैँ,सारा काम स्वयं ही करते हैँ,तैयार होकर करो,डरो मत,विश्वास रखो।

*गीताका आदरपूर्वक पाठ करो। गीताका आदर आप करेँगे तो गीता आपका आदर करेगी।

*गीताके एक श्लोक और एक ही चरणको धारण कर ले तो उद्धार हो जानेपर सारी गीताको भी इसलिए याद करे कि भगवानका प्रिय बनना है, क्योँकि यह भगवानका सिद्धांत है, भगवान का हृदय है।गीताकी जितनी महिमा गायी जाय उतनी थोड़ी है।हमेँ जितना समय मिले उसमेँ लगावेँ और उसे हृदयमेँ धारण करके क्रियामेँ लायेँ।


*मरनेके समय गीताके श्लोकका उच्चारण करता हुआ मरे या भाव समझता हुआ मरे तो भी कल्याण हो जाता है।

*शास्त्रोँमेँ तो यहाँतक आया है कि मरते समय गीताकी पुस्तक मनुष्यके ऊपर मस्तकपर या सिरहाने रख दे तो भी कल्याण हो जाता है,फिर हृदयमेँ धारण करे तब तो बात ही क्या है?
*जैसे हनुमानजी महाराजने राम-नामको रोम-रोममेँ रमा लिया था,इसी तरह गीताको रोम-रोममेँ भरे,रोम-रोममेँ रमा लेवे।

*गीताका असली प्रचार तो यह है कि अपने आचरणसे वैसे करके दूसरेको प्रेमसे समझा दे।गीताकी एक भी बात किसीको पकड़ा दे तो यह गीताका असली प्रचार है।जीवन बना दे,अर्थको समझाकर तात्पर्य बतला दे धारण करा दे।

*गीताके श्लोक मंत्र हैँ।गीता मेँ एक एक बात तौल तौलकर रखी है,गीताको पाँचवाँ वेद भी मानो तो कोई अतिश्योक्ति नहीँ है। श्रधेय सेठ जी श्री जय दयाल जी गोयन्दका , गीता प्रेस , गोरखपुर ...(अमृत वचन)
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