प्रेरक कथा- झगडे का मूल



यह कहानी संत के ज्ञान को दर्शाने वाली कथा है क्युकी हमेशा ही ये माना जाता है की संत, गुरु, साधू और मुनि महाराज के पास उन सभी सांसारिक... समस्याओ का तुरंत हल मिल जाता है जिसके बारे में आज लोग और गृहस्ती हमेशा से ही परेशान रहतेहै |

समाज में साधू,संत,गुरु और मुनि ही हर समस्या की एक मात्र चाबी माने जाते रहे है और यह सही भी है की इनके पास जाने मात्र से ही हमारे मन को शांति प्राप्त हो जाती है और फिर जब इनके दो सांत्वना भरे बोल या ज्ञान बढ़ने वाले शब्द जब हमारे कान में जाते है तो जेसे अन्दर तक आत्मा को ठंडक पहुंचती है

इसलिए आज एक ऐसी ही कहानी लेकर आया हु जिससे आप गुरु की महिमा को समझ ही जायेंगे की क्यों और केसे ये सभी विद्धवान जन तुरंत ही हरेक के मन की समस्या का समाधान कर देते है |


एक बार गोमल सेठ अपनी दुकान पर बेठे थे दोपहर का समय था इसलिए कोई ग्राहक भी नहीं था तो वो थोडा सुस्ताने लगे इतने में ही एक संत भिक्षक भिक्षा लेने के लिए दुकान पर आ पहुचे

और सेठ जी को आवाज लगाई कुछ देने के लिए...

सेठजी ने देखाकी इस समय कोण आया है ?

जब उठकर देखा तो एक संत याचना कर रहा था

सेठ बड़ा ही दयालु था वह तुरंत उठा और दान देने के लिए कटोरी चावल बोरी में से निकला और संत के पास आकर उनको चावल दे दिया

संत ने सेठ जी को बहुत बहुत आशीर्वाद और दुवाए दी

तब सेठजी ने संत से हाथ जोड़कर बड़े ही विनम्र भाव से कहा की

है गुरुजन आपको मेरे प्रणाम में आपसे अपने मन में उठी शंका का समाधान पूछना चाहता हु |

संत याचक ने कहा की जरुर पूछो

तब सेठ जी ने कहा की लोग आपस में लड़ते क्यों है ?

संत ने सेठजी के इतना पूछते ही शांत स्वभव और वाणी में कहा की

सेठ मै तुम्हारे पास भिक्षा लेने के लिए आया हु तुम्हारे इस प्रकार के मुरखता पूर्वक सवालो के जवाब देने नहीं आया हु |

इतना संत के मुख से सुनते ही सेठ जी को क्रोध आ गया और मन में सोचने लगे की यह केसा घमंडी और असभ्य संत है ?
ये तो बड़ा ही कृतघ्न है एक तरफ मैंने इनको दान दिया और येमेरे को ही इस प्रकार की बात बोल रहे है इनकी इतनी हिम्मत

और ये सोच कर सेठजी को बहुत ही गुसा आ गया और वो काफी देर तक उस संत को खरी खोटी सुनते रहे
और जब अपने मनकी पूरी भड़ास निकल चुके
तब कुछ शांत हुए तब संत ने बड़े ही शांत और स्थिर भाव से कहा की –

जैसे ही मैंने कुछ बोला आपको गुस्सा आ गया और आप गुस्से से भर गए और लगे जोर जोर से बोलने और चिलाने

वास्तव में केवल गुस्सा ही सभी झगडे का मूल होता है यदि सभी लोग अपने गुस्से पर काबू रख सके तो या सिख जाये तो दुनिया में झगडे ही कभी न होंगे !!!

भक्त ही धर्मप्रसार की सेवा

स्वामी रामसुखदासजी

एक संत ने कहा है मात्र सर्वश्रेष्ठ भक्त ही धर्मप्रसार की सेवा कर सकता है | धर्मप्रसार की सेवा करते समय प्रत्येक क्षण साधकत्त्वकी परीक्षा होती है | प्रसारकी सेवा करनेवाले साधकको अनेकबार विपरीत परिस्थितिका सामना करना पडता है | साधकको प्रसार कार्य हेतु कई बार अपनेघर-द्वार, सुख-सुविधा एवं अपने परिवारजनों का सान्निध्य छोडकर प्रतिकूल वातावरणमें रहना पडता है तो कभी अनेकदिन तक अपनी रुचि अनुसार भोजनके न मिलने से भोजनके प्रति आसक्ति नष्ट हो, मनके रुचि- अरुचि के संस्कार नष्ट हो जाते हैं, तो कभी सेवाके मध्य स्नान एवं समयपर भोजन न कर पाने की स्थिति निर्माण हो जाती है और तब साधक सब कुछ सहज सहन करनेलगता है तब ऐसी परिस्थितिका सामना करते- करते साधक की देहबुद्धि कम हो जाती है और वह आनंदमें रहने लगता है | 

आपलोगों पर भगवान की कितनी कृपाहै कि आप वाणी पढ़ते हैं, संतों के प्रति श्रद्धा है, भावनाहै-यह कोई मामूली गुण नहीं है. आज आपको इसमें कुछ विशेषतानहीं दीखती, पर है यह बहुत विशेष बात, क्यूंकि- ‘वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नी च, अल्पपुण्यवताम् श्रद्धा यथावन्नैव जायते.’ भगवान के प्यारे भक्त, भगवद्भक्ति आदि में थोड़े पुण्य वालों की श्रद्धा नहीं होती. जब बहुत अन्तःकरण निर्मल होता है, तब संतों में, भगवान की भक्ति में, प्रसाद में और भगवान केनाम में श्रद्धा होती है. जिनमें कुछ भी श्रद्धा-भक्ति होती है,यह उनकेबड़े भारी पुण्य की बात है. वे पवित्रात्मा हैं.

सुधरना नहीं तो सिधारना पड़ता ही है!!

रावण , कंस आदि नहीं सुधरे तो नहीं ही सुधरे . परन्तु उन्हें भी इस पावन धरा से "सिधारना" तो पड़ा ही.

दर असल यह सनातन सिद्धांत है कि "आवागमन" की इस अटल प्रक्रिया को कोई क्या चैलेंज कर सकता है !

सिद्धांत तो सिद्धांत ही होता है.

एक पत्रिका में उल्लेख है कि :
परमात्मा के घर में सुख-समृद्धि , धन-वैभव , आनंद-उल्लास ,यश- कीर्ति आदि का ऐसा अपूर्व भण्डार है , जिसे वे अपने भक्तों पर दिल खुला कर न्यौछावर करते हैं............

लेकिन फिर भी उनके भण्डार में तिल मात्र भी जगह खाली नहीं होती है .

ये तो हम ही मूर्ख , अज्ञानी , अभिमानी- दम्भी , निक्कमे हैं जो उस सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करने में अपनी हेठी समझते हैं.

बिना ज्ञान के , बिना नीति के , बिना कारण के येन -केन प्रकारेण इस नाशवान धन को इकट्ठा करने में इस बेश- कीमती जीवन को व्यर्थ कर डालते हैं ,

और .....
और अंत समय में पल्ला झाड़ कर इस देश-दुनिया से कूच कर जाते हैं.

मगर यह भी ध्यान देने की बात है कि जिन्होंने भी सदाचार पूर्वक , प्रभू की इच्छा का मान रख कर जिस धन का उपार्जन किया , उसे सद्कार्यों में दरियादिली से पानी की तरह बहाने में कोई झिझक भी नहीं दिखाई.

ऐसे सद्गृहस्थों के धन के संग्रह से पीढ़ियों तक सद्कार्य होते ही रहते हैं.

"विरल संत परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज"
अक्सर अपने प्रवचनों में कहा करते थे कि जिस घर में लक्ष्मी "नारायण" के साथ यानि नीति पूर्वक कमाई होती है , वहां लक्ष्मी का वास सात पीढ़ियों तक होता है.

और जहाँ लक्ष्मी अपने वाहन "उल्लू"पर बैठ कर , यानि अनीति पूर्वक धन को हड़प लिया जाता है , वहाँ से लक्ष्मी कुछ सी सालों में उस घर की बरबादी कर विदा हो जाती है.

क्या होगा इस तरह के संग्रह से ?

क्यों झूठा बोझ बाँध रहे हैं -
इस काया के छोटे से सिर पर ?

क्या ले जाओगे साथ में?

किसके लिए यह एकत्रीकरण अभियान चला रखा है ?

कहावत भूल गए ?

पुनः सुनो :

क्यों धन सींचो पूत सपूतां ;
क्यों धन सींचो पूत कपूतां

बेटा तो जैसा भी होगा बसर कर ही लेगा -अपने कर्मों के अनुसार !

समस्त धर्मों के सद्ग्रंथों को छान लो , कहीं भी , किसी भी ग्रन्थ में कपट पूर्वक धन के संग्रह को नहीं सराहा गया है ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है,
इस धर्म-शृंखला में "प्रायश्चित"की महिमा भी है , ईमानदारी पूर्वक अपने प्रभु / ईश्वर / खुदा / ईशु .....जिस भी धर्म के अनुयायी हैं , के समक्ष समर्पित कर दीजिये ,
ऐसे धन को , क्षमा अवश्य मिल जायेगी ,
नहीं तो "वह"तो सर्वशक्तिमान" है , उसी के पास हमारी डोर है , वह तो अपना चमत्कार दिखाएगा ही...........

चौरासी से छुटकारा...

चौरासी से छुटकारा...

एक बनिया था !
उसका व्यापार काफी जोरों से चल रहा था.

किन्तु उसके दिल में साधू संतो के प्रति प्यार की भावना थी !
अतः आये गए अथितियों की सेवा भी करता था.

एक बार एक साधू उसके घर पर आकर रुके !
उसने साधू की आवभगत की !

अपने घर पर भोजन कराया.

साधू जी बड़े प्रसन्न हो गए और सोचने लगे की इस बनिये की आत्मा का कल्याण करना चाहिए !

उन्होंने बनिये से कहा कि-
भाई ! मैं तुम्हे आत्म कल्याण का मार्ग बताना चाहता हूँ क्या तुम मुझसे मार्ग लोगे ?

बनिये ने कहा की -
महाराज जी ! अभी तो मैं बहुत ही व्यस्त हूँ आप कुछ दिन बाद मार्ग बताइए ताकि मैं आत्मचिंतन में समय दे सकूँ !

साधू जी चले गये !

२-३ वर्ष के बाद साधू जी फिर उस बनिये के घर पहुंचे बनिया तो था नहीं उसके बच्चो ने साधू की आवभगत की और बताया कि उनका पिता अर्थात वह बनिया स्वर्ग सिधार गया...

साधू ने ध्यान लगाया तो देखा कि वह बनिया तो अपने ही घर में बैल कि योनी में आया है !

उन्होंने बच्चो से पूछा कि -
"क्या तुम्हारे घर कोई नया बैल आया है"?

उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से कहा कि-
"हाँ"

और साधू जी को बैल दिखलाया !

साधू ने बैल के कान में कहा कि -
"देखो तुम काम में फंसे रहे आत्म कल्याण का मार्ग नहीं लिया और तुम्हारी योनी बदल गयी !

" क्या अब तुम अपना आत्म कल्याण चाहतेहो" ?

बैल बोला-
महाराज अभी तो मैं खेत जोतने में व्यस्त हूँ ! गाड़ी हांकता हूँ !
अतः कुछ दिन बाद आप आइये.

" साधू जी फिर लौट गए !

कुछ दिन बाद वे फिर आये और उन्होंने बच्चो से पूछा-
"तुम्हारा वह बैल कहाँ गया ?"

बच्चो ने कहा वह तो महाराज मर गया |"

साधू जी ने पुनः ध्यान लगाया तो मालूम हुआ कि वह बैल अपने ही दरवाजे का कुत्ता बनकर आया है ...

उन्होंने बच्चो से कहा कि-
तुम्हारे यहाँ कोई "काला कुत्ता है?"

बच्चों ने कहा हाँ महाराज बहुत ही अच्छा कुत्ता है !
है तो छोटा परन्तु अभी से भौंकता बहुत है!

" उन्होंने कुत्ते को साधू जी को दिखलाया .

साधू जी कुत्ते के पास जाकर बोले-
"भाई अब अपनी आत्मा का कल्याण कर लो.!"

कुत्ता बोला-
"महाराज अभी तो मैं घर कि रखवाली करता हूँ !छोटे छोटे बच्चे बाहर दरवाजे पर ही टट्टी कर देते हैं !
उन्हें भी साफ़ करता हूँ !
अतः आप कुछ दिन बाद आइये मैं अवश्य आत्म कल्याण कराऊंगा...!

साधू जी फिर लौट गए.

साधू सोचते रहे कि मैंने बनिये कि रोटी खाई है अतः जब तक मैं उसकी आत्मा का कल्याण नहीं करूँगा, तब तक साधू कर्म को पूरा नहीं कर पाउँगा.!

अतः वह जल्दी से जल्दी उसकी आत्मा का कल्याण करना चाहते थे.

कुछ दिन बाद साधू फिर उसी बनिये के घर पहुंचे ,
उन्होंने बच्चो से पूछा कि -
वह काला कुत्ता कहा गया?

बच्चे बोले -
"वह तो मर गया महाराज |"

साधू ने पुनः ध्यान कर के देखा तो मालूम हुआ कि वह सांप बनकर अपने धन कि रक्षा कर रहा है.

साधू ने बोला कि- तुम्हारे पिता ने तुम लोगों के लिए धन संपत्ति कुछ रखी है ?"

वे बोले महाराज रखी तो है किन्तु जब हम उसे लेने जाते हैं तो वहां एक सांप आकर बैठ गया है वह फुफ्कार मारता है !

साधू ने कहा कि तुम मेरी बात मान लो ,
तुम लोग डंडे लेकर चलो,
मैं तहखाना खोलूँगा वह सांप फुफ्कार मारेगा,
तुम लोग उसे डंडे से मारना किन्तु यह ध्यान रखना कि उसके सिर पर चोट न लगे
नहीं तो वह मर जाएगा.
मरे नहीं घायल हो जाये!

बच्चो ने वैसा ही किया.

जब सांप घायल हो गया तो महात्मा जी ने उसके कान में कहा कि-
"अब तुम क्या चाहते हो बोलो,
जिसकी रखवाली की वही तुम्हे डंडों से मारकर घायल बना रहे हैं.!"

सांप दर्द और जख्म से बैचैन था उसने कहा -
"महाराज अब असहनीय दर्द हो रहा है मेरा आत्म कल्याण कीजिये!"

महात्मा जी ने बनिये की रोटी की कीमत को चुका दिया उसका आत्म कल्याण कर दिया ताकि उसकी जीवात्मा फिर चौरासी योनी में न भटक सके...!

तू ही तू

1.कैसो खेल रचो मेरे दाता, जित देखू उत तू ही तू |
     कैसी रे भूल जगत में डाली, सादिक करनी कर रहो तू |
             कैसो खेल रचो मेरे दाता , जित देखू उत तू ही तू |

2.नर नारिन में एक ही कहिये, दोए जगत में दरसे क्यों |
        बालक होए रोवने ने लगो, माता बन पुचकारे तू |
                कैसो खेल रचो मेरे दाता, जित देखू उत तू ही तू |

3.कीड़ी में छोटो बन बैठो, हाथी में ही मोटो तू |
       होए मगन मस्ती में डोले, महावत बन कर बैठो तू |
               कैसो खेल रचो मेरे दाता, जित देखू उत तू ही तू |

4.राजघरा राजा बन बैठो, भिक्यारा में मंगतो तू |
        होए झगड़ा जब झगड़ बाला तो, फौजदार फौजा में तू ||
                 कैसो रे खेल रचो रे मेरे दाता, जित देखू तिन तू ही तू |

5.देवल में देवता बन बैठो, पूजा में पुजारी तू |
             चोरी करे जब बाजे से चोरठो, खोज करन में खोजी तू ||
                     कैसो रे खेल रचो रे मेरे दाता, जित देखू तिन तू ही तू |

6.राम ही करता राम ही भरता, सारो खले रचायो तू |
          कहत कबीर सुनो भाई साधो, उलट खोज कर पायो तू ||
                कैसो रे खेल रचो रे मेरे दाता, जित देखू उत तू ही तू |

7.कैसी रे भूल जगत में डाली, सादिक करनी कर रहा तू |
          कैसो रे खेल रचो रे मेरे दाता, जित देखू तिन तू ही तू ||

सफला एकादशी की कथा :-


सफला एकादशी, भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है ....

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : राजेन्द्र ! बड़ी बड़ी दक्षिणावाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है । पौष मास के कृष्णपक्ष में ‘सफला’ नाम की एकादशी होती है । उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है ...
 
‘सफला एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता ।
नृपश्रेष्ठ ! अब ‘सफला एकादशी’ की शुभकारिणी कथा सुनो । चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी । राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे । उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था । परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था । उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया । वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था । अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाईयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । लुम्भक गहन वन में चला गया । वहीं रहकर उसने प्राय: समूचे नगर का धन लूट लिया । एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया । किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया । फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा । उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था । उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था । पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था
एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया । पौष मास में कृष्णपक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा । उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला । वह निष्प्राण सा हो रहा था । सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया । ‘सफला एकादशी’ के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा । दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । फिर इधर उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लँगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया । वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था । राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये । तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा: ‘इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों ।’ यों कहकर लुम्भक ने रातभर नींद नहीं ली । इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया । उस समय सहसा आकाशवाणी हुई: ‘राजकुमार ! तुम ‘सफला एकादशी’ के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया । इसके बाद उसका रुप दिव्य हो गया । तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा । उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता
राजन् ! इस प्रकार जो ‘सफला एकादशी’ का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है । संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला एकादशी’ के व्रत में लगे रहते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है । महाराज! इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है ।
 

खाली उधार और शाब्दिक ज्ञान कहीं काम नही आता.

शिप्रा नदी के उस पार बसे एक गांव से एक पंडित रोज नदी को पार कर उज्जैन शहर मे रहने वाले एक धनी सेठ को कथा सुनाने जाता था....

पंडित रोज सेठ को कथा सुनाता तो बदले में सेठ उसे धन दान देता.

ऐसे ही एक दिन जब वह पण्डित सेठ को कथा सुनाने के लिये नदी को पार करके जा रहा था तो उसे एक आवाज सुनाई दी -

कभी हमें भी ज्ञान दे दिया करो'.

पण्डित ने इधर-उधर देखा मगर उसे वहां कोई दिखाई नही दिया.

उसे फिर अपने पास से ही एक आवाज सुनाई दी -

'पण्डित जी मैं यहाँ हूँ'.

पण्डित ने देखा कि वह एक घडियाल था.

पण्डित जी हैरान भी थे घडियाल को इंसान की आवाज में बोलते सुनकर और घबराये भी थे.

घडियाल ने कहा -

पण्डित जी आप डरिये नही आप मुझे कथा सुनाकर ज्ञान प्रदान करे और यह सब मैं मुफ्त में भी नही मांग रहा हूँ,
आपकी कथा के बदले में रोज आपको एक अशर्फी मैं दिया करूंगा'.

पण्डित को बात जची.
पण्डित को तो धन की चाहत थी फिर चाहे वो उसे नदी के उस पार सेठ को कथा सुनाने से मिले या नदी के इस किनारे घडियाल को कथा सुनाकर मिले.

रोज वह पण्डित घडियाल को कथा सुनाता और रोज घडियाल पण्डित को एक अशर्फी बदले में देता.

इस प्रकार काफी दिन बीत गये

एक दिन जब पण्डित घडियाल को कथा सुना चुका तो घडियाल ने उसे कहा -

'पण्डित जी अब मेरा मन कर रहा है कि मैं त्रिवेणी जाऊं ,
मेरा समय अब आ चुका है.
अगर आप भी मेरे साथ त्रिवेणी आना चाहें तो आपका स्वागत है वर्ना यह अशर्फियों से भरा घड़ा लो और अपने घर जाओ'.

पण्डित ने थोड़ी देर कुछ सोचा फिर उसने त्रिवेणी जाने में अपनी असमर्थता बताई और अशर्फियों से भरा घड़ा लेकर वापस घर जाने के लिये घडियाल से विदा की अनुमति मांगी.

घडियाल ने पण्डित को विदाई दी और जब वह घर जाने के लिये मुड़ा तो घडियाल जोर से हंसा.

पण्डित को यूं घडियाल के हंसने पर हैरानी हुई और उसने घडियाल से उसके हंसने का कारण पूछा.

घडियाल ने कहा -

'पण्डित जी आप वापस अपने गांव जाकर मनोहर धोबी के गधे से मेरे हंसने का कारण पूछ लीजिये'.

पण्डित को घडियाल के इस जवाब से बड़ी हैरानी हुई,

'मनोहर धोबी के गधे से पूछे?'

वह निराश मन से वापस घर लौटा.
दो तीन दिन तक वह बड़ा उदास रहा, 'घडियाल ने ऐसा कहा क्यूं?'

एक पण्डित किसी से पूछने जाये और वो भी किसी गधे से यह कैसे हो सकता है?

पण्डित का अहंकार ही यही है कि वह सब जानता है इसलिये किसी से भी पूछने वह जाये कैसे?

इसी कशमकश में वह अपने आप को रोक न पाया और मनोहर धोबी के गधे से घडियाल के हंसने का करण पूछा.

गधे ने कहा -

'पण्डित जी! पिछले जन्म में मैं एक राजा का वज़ीर था.
राजा मुझे अत्यंत सनेह करते थे.
राजा मुझे हमेशा अपने साथ रखते अपने जैसे भोजन और वस्त्र इत्यादि उपलब्ध कराते.
एक दिन राजा ने मुझसे कहा-

'वज़ीर मेरा मन करता है कि मैं त्रिवेणी घूम आऊँ, क्या अच्छा हो कि तुम भी हमारे साथ चलो'

इस प्रकार हम दोनो त्रिवेणी के लिये निकल पड़े.

त्रिवेणी का रमणिक स्थान राजा को खूब पसंद आया और इस प्रकार हम वहां करीब एक महीने तक रहे.

एक दिन राजा ने मुझसे कहा-

'वज़ीर मेरा तो मन अब यहाँ लग चुका है और मैं यहीं रहना चाहता हूँ अगर तुम्हारा भी मन करे तो मेरे साथ यहीं रहो वर्ना यह हीरे मोतियों से भरा घड़ा लो और देश लौट कर राज करो.'

'मैने वह घड़ा लिया और वापस आकर राज करने लगा.

इस कारण इस जन्म में मैं गधा हुआ.
इसलिये घडियाल हंसा.

पण्डित जी खाली उधार और शाब्दिक ज्ञान कहीं काम नही आता.
अब आप देखिये की आपका ज्ञान आपके ही काम न आ सका तो भला किसी और के क्या काम आयेगा ?

'ज्ञान तो आदमी को मुक्त करता है .
जिसे तुम ज्ञान समझते हो वह केवल उधार शब्द तुमने इकट्ठा कर लिये हैं जो खाली तुम्हारे मत हैं धर्म नही और मत आदमी को बाँधता है मुक्त नही करता.'