भजन क्यों नहीं होता ?



जो मनुष्य विषय-भोगो को बाहर से त्याग करके यह मानता है की  'मैंने बहुत बड़ा त्याग किया है, कैसे कैसे महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर घर-द्वार, कुटुंब-परिवार, धन-ऐश्वर्य, पद-अधिकार का परित्याग कर वैराग्य को ग्रहण किया है, वह बाहर से भोग-पदार्थो का त्याग करने वाला होने पर भी वस्तुत मन से भोगो का त्याग नहीं कर पाया है, क्योकि उसके मन में भोगो की स्मृति है और उनकी महता बनी हुई है तभी तो वह अपने को 'बड़ा त्यागी' मानता है | क्या जंगल में या पाखाने में मल त्यागकर आने वाला मनुष्य कभी तनिक भी मन में गौरव करता है की मैंने बड़े महत्व के वास्तु का त्याग किया है ?
क्या उसे उसमे जरा भी अभिमान का अनुभव होता है ? वह तो बस सहज आराम का अनुभव करता है | इसी प्रकार विषय-भोगो में मल बुद्धि या विष-बुद्धि होने पर उनके त्याग में आराम तो मिलता है, पर किसी प्रकार का अभिमान नहीं हो सकता, क्योकि उसका वह त्याग भगवान में महत्व बुद्धि और भोगो में वास्तविक त्याग-बुद्धि होने पर ही होता है | ऐसे पुरुषो का अथवा उनका सत्संग करना चाहिये जो भगवत प्रेम के नशे में चूर होकर या तो संसार को सर्वथा भूल चुके है या जिनको नित्य निरंतर समग्र जगत में केवल अपने प्रियतम के मधुर मनोहर झांकी हो रही है | सत्संग के द्वारा जितना मोह का पर्दा हटेगा या फटेगा, उतना ही विषय-मोह मिटकर भगवान् के और चित्त का आकर्षण होगा और उतनी ही अधिक भगवत भजन में प्रवृति होगी | एवं ज्यो ज्यो भजन में निष्कामता, प्रेम और निरंतरता आएगी, त्यों ही त्यों मोह निशा का अंत समीप आता जायेगा | फिर तो मोह मिटते ही भगवान् ह्रदय में आ विराजेंगे | विराज तो अब भी रहे है, परन्तु हमने अपनी अन्दर की आँखों पर पर्दा डाल रखा है और उनके स्थान पर मलिन काम को बैठा रखा है, इससे वे छिपे हुए है | फिर प्रगट हो जायेंगे और उनके प्रगट होते ही काम-तम भाग जायेगा --

जहाँ काम तह राम नहीं, जहाँ राम नहीं काम | तुलसी कबहू की रही सके, रवि रजनी एक ठाम ||