ठाकुर जी और उनके भक्त की एक निराली कथा .......



जय श्री कृष्ण
ठाकुर जी और उनके भक्त की एक निराली कथा .......

एक लडकी थी जो कृष्ण जी की अनन्य भक्त थी, बचपन से ही कृष्ण भगवान का भजन करती थी, भक्ति करती थी, भक्ति करते-करते बड़ी हो गई, भगवान की कृपासे उसका विवाह भी श्रीधाम वृंदावन में किसी अच्छे घर में हो गया.

विवाह होकर पहली बार वृंदावन गई, पर नई दुल्हन होने से कही जा न सकी, और मायके चलि गई.
और वो दिन भी आया जब उसका पति उसे लेने उसके मायके आया,
अपने पति के साथ फिर वृंदावन पहुँच गई, पहुँचते पहुँचते उसे शाम हो गई, पति वृंदावन में यमुना किनारे रूककर कहने लगा -
देखो! शाम का समय है में यमुना जी मे स्नान करके अभी आता हूँ,
तुम इस पेड़ के नीचे बैठ जाओ और सामान की देखरेख करना मै थोड़े ही समय में आ जाऊँगा यही सामने ही हूँ, कुछ लगे तो मुझे आवाज देदेना, इतना कहकर पति चला गया और वह लडकी बैठ गई.

अब एक हाथ लंबा घूँघट निकाल रखा है, क्योकि गाँव है,ससुराल है और वही बैठ गई, मन ही मन विचार करने लगी - कि
देखो!ठाकुर जी की कितनी कृपाहै उन्हें मैंने बचपन से भजा और उनकी कृपा से मेरा विवाह भी श्री धाम वृंदावन में हो गया.
मैं इतने वर्षों से ठाकुर जी को मानती हूँ परन्तु अब तक उनसेकोई रिश्ता नहीं जोड़ा?

फिर सोचती है ठाकुर जी की उम्र क्या होगी ?
लगभग १६ वर्ष के होंगे, मेरे पति २० वर्ष केहै उनसे थोड़े से छोटे है, इसलिए मेरे पति के छोटे भाई की तरह हुए, और मेरे देवर की तरह, तो आज से ठाकुर जी मेरे देवर हुए, अब तो ठाकुर जी से नया सम्बन्ध जोड़कर बड़ी प्रसन्न हुई और मन ही मन ठाकुर जी से कहने लगी -

देखो ठाकुर जी ! आज से मै तुम्हारी भाभी और तुम मेरे देवर हो गए, अब वो समय आएगा जब तुम मुझे भाभी-भाभी कहकर पुकारोगे. इतना सोच ही रही थी तभी एक १०- १५ वर्ष का बालक आया और उस लडकी से बोला - भाभी-भाभी !
लडकी अचानक अपने भाव से बाहर आई और सोचने लगी वृंदावन में तो मै नई हूँ ये भाभी कहकर कौन बुला रहा है,
नई थी इसलिए घूँघट उठकर नहीं देखा कि गाँव के किसी बड़े-बूढ़े ने देख लिया तो बड़ी बदनामी होगी.

अब वह बालक बार-बार कहता पर वह उत्तर न देती बालक पास आया और बोला -
भाभी! नेक अपना चेहरा तो देखाय दे,
अब वह सोचने लगी अरे ये बालक तो बड़ी जिद कर रहा है इसलिए कस केघूँघट पकड़कर बैठ गई कि कही घूँघट उठकर देखन ले, लेकिन उस बालक ने जबरजस्ती घूँघट उठकर चेहरा देखा और भाग गया.

थोड़ी देर में उसका पति आ गया, उसनेसारी बात अपने पतिसे कही.
पति नेकहा - तुमने मुझे आवाज क्यों नहीं दी ? लड़की बोली - वह तो इतनेमें भाग ही गया था.

पति बोला - चिंता मत करो, वृंदावन बहुत बड़ा थोड़े ही है ,
कभी किसी गली में खेलता मिल गया तो हड्डी पसली एक कर दूँगा फिर कभी ऐसा नहीं कर सकेगा.
तुम्हे जहाँ भी दिखे, मुझे जरुर बताना.

फिर दोनों घर गए,
कुछ दिन बाद उसकी सास नेअपने बेटे से कहा- बेटा! देख तेरा विवाह हो गया, बहू मायके से भी आ गई,
पर तुम दोनों अभी तक बाँके बिहारी जी केदर्शन के लिए नहीं गए कल जाकर बहू को दर्शन कराकर लाना. अब अगले दिन दोनों पति पत्नी ठाकुर जी के दर्शन केलिए मंदिर जाते है मंदिर में बहुत भीड़ थी,

लड़का कहने लगा -
देखो! तुम स्त्रियों के साथ आगे जाकर दर्शन करो, में भी आता हूँ अब वह आगे गई पर घूंघट नहीं उठाती उसे डर लगता कोई बड़ा बुढा देखेगा तो कहेगा नई बहू घूँघट के बिना घूम रही है.

बहूत देर हो गई पीछे से पति ने आकर कहा -
अरी बाबली ! बिहारी जी सामनेहै, घूँघट काहे नाय खोले,घूँघट नाय खोलेगी तो दर्शन कैसे करेगी,

अब उसने अपना घूँघट उठाया और जो बाँके बिहारी जी की ओर देखातो बाँके बिहारी जी कि जगह वही बालक मुस्कुराता हुआ दिखा तो एकदम से चिल्लाने लगी - सुनिये जल्दी आओ!
जल्दी आओ !

पति पीछेसे भागा- भागा आया बोला क्या हुआ?
लड़की बोली - उस दिन जो मुझे भाभी-भाभी कहकर भागा था वह बालक मिल गया.

पति ने कहा - कहाँ है ,अभी उसे देखता हूँ ?
तो ठाकुर जी की ओर इशारा करके बोली- ये रहा, आपके सामनेही तो है,

उसके पति ने जो देखा तो अवाक रह गया और वही मंदिर में ही अपनी पत्नी के चरणों में गिर पड़ा बोला तुम धन्य हो वास्तव में तुम्हारे ह्रदय में सच्चा भाव ठाकुर जी के प्रति है,
मै इतने वर्षों से वृंदावन मै हूँ मुझे आज तक उनकेदर्शन नहीं हुए और तेरा भाव इतना उच्च है कि बिहारी जी के तुझे दर्शन हुए..................................

भक्त और भगवान् की जय .........

कल्याणका निश्चित उपाय

।। श्रीहरिः ।।
कल्याणका निश्चित उपाय
भगवान् ने जीव पर कृपा करके उसको अपना कल्याण करनेके लिए हीमनुष्यशरीर दिया है । अपना कल्याण करनेके सिवाय मनुष्यजन्मकादूसरा कोई प्रयोजन है ही नहीं । शरीर, धन-संपत्ति, जमीन-मकान, स्त्री-पुत्रआदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएं हैं, वे सब-की-सब मिलने औरबिछुडनेवाली हैं । अतः कोई कितना ही बड़ा धनवान बन जाय, बलवानबन जाय, विद्वान बन जाय, ऊँचे पदवाला बन जाय, बड़े कुटुम्बवाला बनजाय, पर अपने कल्याणके बिना ये सब-की-सब वस्तुएँ अपने कुछ कामन आयेंगी । बिना दुल्हेकी बरातकी तरह सम्पूर्ण सांसारिक भोग व्यर्थ हैं ।इसलिए मनुष्यका खास कर्त्तव्य है—अपना कल्याण करना ।

एक मार्मिक बात है कि अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतंत्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है । कारण कि भगवान् जीवको मनुष्यशरीर देते हैं तो उसके साथ ही अपना कल्याण करनेकी स्वतंत्रता, सामर्थ्य, योग्यता और अधिकार भी प्रदान करते हैं ।

अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य अपना कल्याण करनेके लिए क्या करें ?
इसका उत्तर है कि यदि मनुष्य इन चार बातोंको दृढतासे स्वीकार करले तो उसका कल्याण हो जाएगा—
१- मेरा कुछ भी नहीं है ।
२- मेरेको कुछ भी नहीं चाहिए ।
३- मेरा किसीसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
४- केवल भगवान् ही मेरे हैं ।
मिलने और बिछुडनेवाली वस्तुओंको अपना मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है । वास्तवमें अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है । इसलिए ‘मेरा कुछ भी नहीं है’— ऐसा स्वीकार करनेसे जीवनमें निर्दोषता आ जाती है । निर्दोषता आते ही मनुष्य धर्मात्मा हो जाता है ।
जब मेरा कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किस वस्तुकी चाहना करें ? अतः ‘मेरेको कुछ भी नहीं चहिये’—ऐसा स्वीकार करते ही जीवनमें निष्कामता आ जाती है । निष्कामता आते ही मनुष्य योगी हो जाता है अर्थात् उसको समत्वरूप योगकी प्राप्ति हो जाती है—‘समत्वं योग उच्यते’ ( गीता २/४८ ) । कोई भी कामना न होनेसे उसको चित्तवृतिनिरोधरूप योगकी भी प्राप्ति हो जाती है—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ ( योगदर्शन १/२ ) । मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः असंग है—‘असंगो ह्ययं पुरुषः’ ( बृहदा. ४/३/१५ ) । अतः मिलने और बिछुड़नेवाले किसी भी वस्तु-व्यक्तिके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे मनुष्यको अपनी असंगताका अनुभव हो जाता है । असंगताका अनुभव होनेपर वह ज्ञानी हो जाता है ।

जीवमात्र परमात्माका अंश है—‘ममैवांशो जीवलोके’ ( गीता १५/७ ) । भगवान् का अंश होनेके नाते केवल भगवान् ही हमारे हैं । भगवान् के सिवाय दूसरा कोई हमारा नहीं है । इस प्रकार भगवान् में अपनापन स्वीकार करते ही मनुष्य भक्त हो जाता है ।
धर्मात्मा, योगी, ज्ञानी और भक्त होनेमें ही मनुष्यका कल्याण निहित है । ऐसा होनेमें कठिनाई भी नहीं है; क्योंकि वास्तवमें मनुष्यमात्रका स्वरुप स्वतः निर्दोष, निष्काम, असंग और भगवान् का अंश है । तात्पर्य है कि हमारा स्वरुप सत्तामात्र है । उस सत्तामें निर्दोषता, निष्कामता और असंगता स्वतःसिद्ध है और वह सत्ता भगवान् का अंश है । इसलिए साधकका कर्तव्य है कि वह उपर्युक्त चारों बातोंको दृढ़तासे स्वीकार कर ले । फिर उसका कल्याण निश्चित है ।
—‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे

www.satcharcha.blogspot.com
www.bolharibol.blogspot.in
http://www.facebook.com/swamiramsukhdasji

याद रखो

याद रखो


तुम्हारे द्वारा किसी प्राणीका कभी कुछ भी अनिष्ट हो जाय या उसे दुःख पहुँच जाय तो इसके लिये बहुत ही पश्चात्ताप करो ! यह ख़याल मत करो कि उसके भाग्यमें तो दुःख बदा ही था, मैं तो निमित्तमात्र हूँ, मैं निमित्त न बनता तो उसको कर्मका फल ही कैसे मिलता, उसके भाग्य से ही ऐसा हुआ है, मेरा इसमें क्या दोष है, उसके भाग्यमें जो कुछ भी हो इससे तुम्हें मतलब नहीं ! तुम्हारे लिये ईश्वर और शास्त्रकी यही आज्ञा है कि तुम किसीका अनिष्ट न करो! तुम किसीका बुरा करते हो तो अपराध करते हो और इसका दण्ड तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा; उसे कर्मफल भुगतानेके लिये ईश्वर आप ही कोई दूसरा निमित्त बनाते, तुमने निमित्त बनकर पापका बोझा क्यों उठाया?


याद रखो कि तुम्हें जब दुसरेके द्वारा जरा-सा भी कष्ट मिलता है, तब तुम्हें कितना दुःख होता है, इसी प्रकार उसे भी होता है! इसलिये कभी भूलकर भी किसीके अनिष्टकी भावना ही न करो, ईश्वरसे सदा यह प्रार्थना करते रहो कि ' हे भगवन् ! मुझे ऐसी सदबुद्धि दो जिससे मैं तुम्हारी सृष्टिमें तुम्हारी किसी भी संतानका अनिष्ट करने या उसे दुःख पहुँचानेमें कारण न बनूँ ! सदैव सबकी सच्ची हित-कामना करो और यथासाध्य सेवा करनेकी वृत्ति रखो! कोढ़ी, अपाहिज, दु;खी-दरिद्रको देखकर यह समझकर कि 'यह अपने बुरे कर्मोंका फल भोग रहा है; जैसा किया था वैसा ही पाता है'-- उसकी उपेक्षा न करो, उससे घृणा न करो और रुखा व्यवहार करके उसे कभी कष्ट न पहुँचाओ ! वह चाहे पूर्वका कितना ही पापी क्यों न हो, तुम्हारा काम उसके पाप देखनेका नहीं है, तुम्हारा कर्तव्य तो अपनी शक्तिके अनुसार उसकी भलाई करना तथा उसकी सेवा करना ही है! यही भगवान् की तुम्हारे प्रति आज्ञा है ! यह न कर सको तो कम-से-कम इतना तो जरुर ख़याल रखो जिससे तुम्हारे द्वारा न तो किसीको कुछ भी कष्ट पहुँचे और न किसका अनिष्ट ही हो! तुम किसीसे घृणा करके उसे दुःख पहुँचाते हो तो पाप करते हो, जिसका बुरा फल तुम्हें जरुर भोगना पड़ेगा !

नित्य लीलालीन श्रधेय भाई श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्धार , गीता प्रेस गोरखपुर के प्रवचनों से लिया हुआ .....

मानव का परमात्मा से अटूट सम्बन्ध
संत कबीर ने एक पद में लिखा है "पानी बिच मीन पियासी मोहे सुनी सुनी आवे हांसी" | रस स्वरुप परमात्मा में से उद्भूत हुए हम रस स्वरुप परमात्मा में स्थित है | उन्ही के द्वारा सुरक्षित, संचालित, पालित हैं और रस के अभाव में कहाँ-कहाँ भटकते फिर रहे हैं ! तो इस दशा को मिटाना हम लोगों के लिए आवश्यक है जिसमें लगता है कि हम उससे बिछुड़ गए हैं | उस रस स्वरुप परमात्मा से हम बिछुड़ गए हैं, यह सत्य नहीं है | यह केवल भ्रम है, क्योंकि बिछुड़ जाते तो हमारी सत्ता ही नहीं होती | वह जो हमारा उद्गम है, Generation of life है, उससे एक क्षण के लिए भी सम्बन्ध टूट जाय तो हमारी सत्ता ख़त्म हो जाती, अस्तित्व ही नहीं रहता | तो किसी भी काल में सम्बन्ध टूटा नहीं है और न कभी टूटेगा | वह टूटने वाला है ही नहीं | द्रश्य से जो सम्बन्ध जुड़ा हुआ प्रतीत हो रहा है वह भी कोरा भ्रम है |परमात्मा से कभी सम्बन्ध टूटा नहीं, मिटा नहीं, छूटा नहीं, टूटेगा नहीं | वे तो छोड़ते ही नहीं हैं, वे कैसे छोड़ेंगे | स्वामीजी महाराज अपने शानदार व्यक्तित्व (personality) के प्रभाव में आ जाते तो कहते कि परमात्मा की हिम्मत नहीं है कि हमसे सम्बन्ध तोड़ दे और अपनी करूणा कि गोद से निकाल कर हमको फेंक दें | अगर ऐसा कर सकेंगे तो अनंत माधुर्यवान का उनका विशेषण ख़त्म हो जायगा | अनंत माधुर्यवान किसको कहते हैं ? जो केवल अपने स्वभाव से ही पतित से पतित को भी अपनी करूणा से संभाल कर रखता है | हम पतित से पतित हो सकते हैं लेकिन उनके अनंत माधुर्य की जो विशेषता है, उसको वे ख़त्म नहीं करेंगे |मानव का परमात्मा से अटूट सम्बन्धसंत कबीर ने एक पद में लिखा है "पानी बिच मीन पियासी मोहे सुनी सुनी आवे हांसी" | रस स्वरुप परमात्मा में से उद्भूत हुए हम रस स्वरुप परमात्मा में स्थित है | उन्ही के द्वारा सुरक्षित, संचालित, पालित हैं और रस के अभाव में कहाँ-कहाँ भटकते फिर रहे हैं ! तो इस दशा को मिटाना हम लोगों के लिए आवश्यक है जिसमें लगता है कि हम उससे बिछुड़ गए हैं | उस रस स्वरुप परमात्मा से हम बिछुड़ गए हैं, यह सत्य नहीं है | यह केवल भ्रम है, क्योंकि बिछुड़ जाते तो हमारी सत्ता ही नहीं होती | वह जो हमारा उद्गम है, Generation of life है, उससे एक क्षण के लिए भी सम्बन्ध टूट जाय तो हमारी सत्ता ख़त्म हो जाती, अस्तित्व ही नहीं रहता | तो किसी भी काल में सम्बन्ध टूटा नहीं है और न कभी टूटेगा | वह टूटने वाला है ही नहीं | द्रश्य से जो सम्बन्ध जुड़ा हुआ प्रतीत हो रहा है वह भी कोरा भ्रम है |परमात्मा से कभी सम्बन्ध टूटा नहीं, मिटा नहीं, छूटा नहीं, टूटेगा नहीं | वे तो छोड़ते ही नहीं हैं, वे कैसे छोड़ेंगे | स्वामीजी महाराज अपने शानदार व्यक्तित्व (personality) के प्रभाव में आ जाते तो कहते कि परमात्मा की हिम्मत नहीं है कि हमसे सम्बन्ध तोड़ दे और अपनी करूणा कि गोद से निकाल कर हमको फेंक दें | अगर ऐसा कर सकेंगे तो अनंत माधुर्यवान का उनका विशेषण ख़त्म हो जायगा | अनंत माधुर्यवान किसको कहते हैं ? जो केवल अपने स्वभाव से ही पतित से पतित को भी अपनी करूणा से संभाल कर रखता है | हम पतित से पतित हो सकते हैं लेकिन उनके अनंत माधुर्य की जो विशेषता है, उसको वे ख़त्म नहीं करेंगे |
From page 104-105 of book जीवन-विवेचन भाग १ ख, written by Shri Devaki Mataji, foremost disciple of Swami Sharnanandji Maharaj


॥ श्रीहरिः ॥


*परमात्मा प्रेम प्राप्ति के साधन*

(१) भगवद्भक्तोँ द्वारा श्रीभगवानके गुणानुवाद और उनके प्रेम तथा प्रभावकी बातेँ सुननेसे अति शीघ्र प्रेम हो सकता है । भक्तोँके संगके अभावमेँ शास्त्रोँका अभ्यास ही सत्संग के समान है ।

(२) श्रीपरमात्माके नामका जप निष्कामभावसे और ध्यानसहित निरंतर करनेके अभ्याससे भगवानमेँ प्रेम हो सकता है ।

(३) श्रीपरमात्माके मिलनेकी तीव्र इच्छासे भी प्रेम बढ़ सकता है ।

(४) श्रीपरमात्माके आज्ञानुकूल आचरणसे उनके मनके अनुसार चलनेसे उनमेँ प्रेम हो सकता है । शास्त्रकी आज्ञाको भी परमात्माकी आज्ञा समझनी चाहिए ।

(५) भगवानके प्रेमी भक्तोँसे सुनी हुई और शास्त्रोँमेँ पढ़ी हुई श्रीपरमात्माके गुण, प्रभाव और प्रेमकी बातेँ निष्कामभावसे लोगोँमेँ कथन करनेसे भगवानमेँ बहुत महत्त्वका प्रेम हो सकता है ।

उपर्युक्त पाँचोँ साधनोँमेँ से यदि एकका भी भलीभाँति आचरण किया जाय तो प्रेम होना संभव है ।

मान-अपमानको समान समझकर निष्कामभावसे सबको भगवानका स्वरुप जानकर सबकी सेवा करनी चाहिए ।योँ करनेसे भगवत्कृपासे आप ही प्रेम हो सकता है । सबमेँ भगवानका भाव होनेपर किसीपर भी क्रोध नहीँ हो
सकता है ।

यदि क्रोध होता है तो समझना चाहिए कि अभी वह भाव नहीँ हुआ । चित्तमेँ कभी उद्वेग नहीँ होना चाहिए । जो
कुछ हो, उसीमेँ आनंद मानना चाहिए, क्योँकि सभी कुछ उस प्रभुकी आज्ञासे और उसके मतके अनुकूल ही होता है ।

यदि प्रभुके अनुकूल होता है तो फिर हमको भी उसकी अनुकूलतामेँ अनुकूल ही रहना चाहिए । उस परमात्माके
प्रतिकूल और उसकी आज्ञा बिना कुछ भी होना संभव नहीँ, इस प्रकार निश्चय करके प्रभुकी प्रसन्नतामेँ प्रसन्न
होकर सब समय आनंदमेँ मग्न रहना चाहिए ।

(परमार्थ-पत्रावली-भाग-१)

गीता जी का महत्त्व




||श्रीहरिः॥
* गीताजी की आज्ञा भगवानकीआज्ञा समझनी चाहिए।

* मेरी दृष्टिमेँ गीतासे बढ़कर संसारमेँ और कोई शास्त्र है ही नहीँ, गीता वेदसे भी बढ़कर है।

*गीता भगवानकी साक्षात वाङ्गमयी मूर्ति है

*गीता भगवानके साक्षात श्वास है


*गीताजीका अर्थसहित, भावसहित अवश्य ही मनन करना चाहिए।


*गीता हमलोगोँको त्याग सिखलाती है-आसक्तिका त्याग, अहंताका त्याग, ममताका त्याग


*जिस तरह भगवानका सबमेँ प्रवेश है यानी भगवान व्यापक हैँ,उसी तरह अपने लोगोँका गीतामेँ प्रवेश होना चाहिए यानी हमारे रोम-रोममेँ गीता होनी चाहिए।


*कल्याण तो इनमेँसे किसी एक ही बातसे हो जाय-
()गीताजीमेँ प्रवेश हो जाय,बस इतनेमेँ ही मामला समाप्त है
() सबको नारायणका स्वरुप समझकर सेवा करे,इतनेमेँ ही कल्याण हो जायगा।
() गीताजीका एक ही श्लोक धारण कर ले,इतनेमेँ ही काम बन जायगा

*गीताका ग्यान,गोविँद का ध्यान गंगा का स्नान गौका दान गायत्रीका गान-ये पाँचो बहुत उत्तम हैँ सभी कल्याण करनेवाली है।

*गीता के अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए।

*गीताका प्रचार लोगोँमेँकरना चाहिए।भगवानकी भक्तिका प्रचार करना,लोगोँको भक्तिमार्गमेँ लगाना इससे बढ़कर कोई काम नहीँ है।

*गीता-प्रचारको सभी बातोँसे ऊँची समझकर भगवान कहते हैँ-
तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता मे तस्मादन्यः प्रियतरो भूवि॥(गीता 18.69)
उससे (गीता प्रचारकसे) बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योँमेँ कोई भी नहीँ है;तथा पृथ्वीभरमेँ उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमेँ होगा भी नहीँ।

*गीताका जो प्रचार करते हैँ तथा जो लोगोँको इसमेँ लगाते हैँ,उनसे बढ़कर संसारमेँ कोई भी नहीँ है।

*गीता-प्रचार करनेवाले लोगोँसे बढ़कर मेरा प्यारा कोई नहीँ है।

*गीताकी पुस्तकको खूब आदर देना चाहिए।

*गीताको भगवान से भी बढ़कर बतावेँ तो भगवान नाराज नहीँ होँगे।

*गीतामेँ स्नान करनेवाला संसारका उद्धार कर सकता है,गीता गायत्रीसे भी बढ़कर है।


*गीता सुनते हुए मरनेवाला पाठ करनेवाला अर्थसहित पाठ करनेवाला अर्थ समझनेवाला धारण करनेवाला-ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैँ।

*गीता निष्पक्ष ग्रंथ है।वाममार्गकी भी गीता निँदा नहीँ करती।

*सारे शास्त्र दब जायँगे तो गीता जीती-जागती रह जायगी।

*गीताके प्रचारके लिए तो हमेँ सेनाकी तरह तैयार हो जाना चाहिए।

*मैँ गीता-गीता कहता रहता हूँ, कोई कहे कि पागल हो गये क्या?इस पागलपनमेँ भी मज *गीता का पाठ सुननेवाला भी मुक्त हो जाता है।

*गली-गलीमेँ गीता-ही-गीता हो जाय,ऐसा कोई भी घर बाकी नहीँ रहने दे जिस घर मेँ गीता हो।जिस घरमेँ गीता नहीँ, वह घर श्मशान के समान है।

*जिस घर मेँ गीता का पाठ नहीँ हो, वह यमपुरी के समान है।

*क्रिया, कण्ठ वाणी तथा हृदयमेँ गीता धारण करनी चाहिए।

*गीता कंठस्थ कर लेँ हृदय मेँ धारण कर ले गीता के सिद्धांत और उसके भाव एक हैँ।

*एक गीताके द्वारा हजारोँ-लाखोँ-करोड़ोँका कल्याण हो सकता है,इसकी बड़ी विलक्षणता है।

*गीतारुपी वृक्ष को सीँचो, यह संसारको काटता है।

*सबके हृदय कंठमेँ गीता बसा देवेँ।

*मेरा जीवन प्राण-सबकुछ गीता है।एक तरफ सब धन एक तरफ गीता होनेपर भी सांसारिक धनसे गीताकी तुलना नहीँ की जा सकती।

*गीता की स्तुति इस प्रकार गावेँ-
त्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव॥
गीता पोषण करती है इसलिए माता है गीता रक्षा करती है इसलिए पिता है।भाई तो धोखा दे सकता है गीता धोखा नहीँ देती। मौकेपर सखा भी साथ छोड़ देते हैँ,पर गीता नहीँ छोड़ती। यही असली विद्या है जिसके पास गीता धन है उसके पास सबकुछ है।

*गीता भगवानका हृदय वाणी श्वास आदेश सबकुछ है।

*हमारा सर्वस्व गीता है। सारा धन भले ही चला जाय गीता हमारे पास रह जाय।

*गीताजी मेँ एक-एक साधन की अंतिम सीमातक का साधन लिखा है।

*मेरे तो भगवद्गीता ही आधार है।

*परमात्माके नामका जप गीताके अभ्यास से प्रत्यक्ष लाभ होता है,इससे बढ़कर संसारमेँ कोई नहीँ है।सत्संग अच्छे पुरुषोँका संग इसकी जड़ है,परमात्माका ध्यान इसका फल है।

*प्रथम तो गीताका प्रचार अपनी आत्मामेँ करना चाहिए। पहले सिपाही बनकर कवायद सीखेँगे तभी तो कमांडर बनकर सिखायेँगे। आप जितनी मदद चाहेँ उतनी मिल सकती है। एक ही व्यक्ति स्वामी शंकराचार्यजीने कितना प्रचार किया,भगवान की शक्ति थी। *हरेक प्रकारसे गीताका प्रचार करना चाहिए।भगवानकी भक्तिके सभी अधिकारी हैँ।गीता बालक, स्त्री, वृद्ध, युवा-सभीके लिए है।

*सार यही है कि भगवानके कामके लिए कटिबद्ध होकर लग जाना चाहिए।स्वधर्मे निधनं श्रेयः अपने धर्म-पालनमेँ मरना भी पड़े तो कल्याण है। बंदरोँने भगवानका काम किया, उनमेँ क्या बुद्धि थी।गीताका प्रचार भगवानका ही काम है।निमित्त कोई भी बन जाय,भगवानकी शक्तिको मत भूलो 'तव प्रताप बल नाथ' मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाके ठोकर मारकर काम करो,फिर देखो भगवान पीछे-पीछे फिरते हैँ,सारा काम स्वयं ही करते हैँ,तैयार होकर करो,डरो मत,विश्वास रखो।

*गीताका आदरपूर्वक पाठ करो। गीताका आदर आप करेँगे तो गीता आपका आदर करेगी।

*गीताके एक श्लोक और एक ही चरणको धारण कर ले तो उद्धार हो जानेपर सारी गीताको भी इसलिए याद करे कि भगवानका प्रिय बनना है, क्योँकि यह भगवानका सिद्धांत है, भगवान का हृदय है।गीताकी जितनी महिमा गायी जाय उतनी थोड़ी है।हमेँ जितना समय मिले उसमेँ लगावेँ और उसे हृदयमेँ धारण करके क्रियामेँ लायेँ।


*मरनेके समय गीताके श्लोकका उच्चारण करता हुआ मरे या भाव समझता हुआ मरे तो भी कल्याण हो जाता है।

*शास्त्रोँमेँ तो यहाँतक आया है कि मरते समय गीताकी पुस्तक मनुष्यके ऊपर मस्तकपर या सिरहाने रख दे तो भी कल्याण हो जाता है,फिर हृदयमेँ धारण करे तब तो बात ही क्या है?
*जैसे हनुमानजी महाराजने राम-नामको रोम-रोममेँ रमा लिया था,इसी तरह गीताको रोम-रोममेँ भरे,रोम-रोममेँ रमा लेवे।

*गीताका असली प्रचार तो यह है कि अपने आचरणसे वैसे करके दूसरेको प्रेमसे समझा दे।गीताकी एक भी बात किसीको पकड़ा दे तो यह गीताका असली प्रचार है।जीवन बना दे,अर्थको समझाकर तात्पर्य बतला दे धारण करा दे।

*गीताके श्लोक मंत्र हैँ।गीता मेँ एक एक बात तौल तौलकर रखी है,गीताको पाँचवाँ वेद भी मानो तो कोई अतिश्योक्ति नहीँ है। श्रधेय सेठ जी श्री जय दयाल जी गोयन्दका , गीता प्रेस , गोरखपुर ...(अमृत वचन)
http://www.facebook.com/Jaydayalji

भगवान की प्राप्ति २४ घंटे में हो सकती है

प्रवचन नंबर २४. (२८-१२-१९६३) गोबिंद भवन, कलकत्ता
भगवान की प्राप्ति २४ घंटे में हो सकती है| इसके लिए ५ चीज़ों का त्याग करना जरूरी है – आहार, जल, नींद, टट्टी और पेशाब एवं २ चीज़ों को ग्रहण करना जरूरी है – भगवन्नाम जप और भगवान का ध्यान|

श्रीराधा-माधव कृपा.....

"बहुत समय पहले की बात है वृन्दावन में एक महात्मा जी का निवास था जो युगल स्वरुप की उपासना किया करते थे.....एक बार वे महात्मा जी संध्या वन्दन के उपरान्त कुँजवन की राह पर जा रहे थे, मार्ग में महात्मा जी जब एक वटवृक्ष के निचे होकर निकले तो उनकी जटा उस वट-वृक्ष की जटाओं में उलझ गईं, बहुत प्रयास किया सुलझाने का परन्तु जब जटा नहीं सुलझी तो महात्मा भी तो महात्मा हैं वे आसन जमा कर बैठ गए की जिसने जटा उलझाई है वो सुलझाने आएगा तो ठीक है नही तो मैं ऐसे ही बैठा रहूँगा और बैठे- बैठे ही प्राण त्याग दूँगा......तीन दिन बीत गए महात्मा जी को बैठे हुए...एक सांवला सलोना ग्वालिया आया जो पाँच-सात वर्ष का रहा होगा...वो बालक ब्रजभाषा में बड़े दुलार से बोला "बाबा तुम्हारी तो जटा उलझ गईं, अरे मैं सुलझा दऊँ का".....और जैसे ही वो बालक जटा सुलझाने आगे बढ़ा महात्मा जी ने कहा "हाथ मत लगाना...पीछे हटो....कौन हो तुम" ग्वालिया : अरे हमारो जे ही गाम है महाराज गैया चरा रह्यो तो मैंने देखि महात्मा जी की जटा उलझ गईं है मैंने सोची ऐसो करूँ मैं जाए के सुलझा दऊँ..... महात्मा जी : न न न दूर हट जा ग्वालिया : चौं काह भयो..? महात्मा जी : जिसने जटा उलझाई है वो आएगा तो ठीक नहीं तो इधर ही बस गोविन्दाय नमो नमः  ग्वालिया : अरे महाराज तो जाने उलझाई है वाको नाम बताए देयो वाहे बुला लाऊँगो..... महात्मा जी : बोला न जिसने उलझाई है वो अपने आप आ जायेगा..तू जा नाम नहीं बताते हम...... कुछ देर तक वो बालक महात्मा जी को समझाता रहा परन्तु जब महात्मा जी नहीं माने तो उसी क्षण ग्वालिया के भेष को छुपा कर ग्वालिया में से साक्षात् मुरली बजाते हुए मुस्कुराते हुए भगवान बाँकेबिहारी प्रकट हो गए.......सांवरिया सरकार बोले "महात्मन मैंने जटा उलझाई है ? तो लो आ गया मैं"...और जैसे ही सांवरिया जी जटा सुलझाने आगे बढे..महात्मा जी ने कहा "हाथ मत लगाना....पीछे हटो....पहले बताओ तुम कौन से कृष्ण हो ? महात्मा जी के वचन सुनकर सांवरिया जी सोच में पड़ गए, अरे कृष्ण भी दस-पाँच होते हैं क्या ? महात्मा जी फिर बोले "बताओ भी तुम कौन से कृष्ण हो....?" सांवरिया जी : कौन से कृष्ण हो मतलब ? महात्मा जी : देखो कृष्ण भी कई प्रकार के होते हैं, एक होते हैं देवकीनंदन कृष्ण, एक होते हैं यशोदानंदन कृष्ण, एक होते हैं द्वारकाधीश कृष्ण, एक होते हैं नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण.... सांवरिया जी : आपको कौन सा चाहिए....? महात्मा जी : मैं तो नित्य-निकुँजबिहारी कृष्ण का परमोपासक हूँ......  सांवरिया जी : वही तो मैं हूँ.......अब सुलझा दूँ....? और जैसे ही जटा सुलझाने सांवरिया सरकार आगे बढे तो महात्मा जी बोल उठे "हाथ मत लगाना...पीछे हटो....बड़े आये नित्य- निकुँजबिहारी कृष्ण....अरे नित्य- निकुँजबिहारी कृष्ण तो किशोरी जी के बिना मेरी स्वामिनी श्री राधारानी के बिना एक पल भी नहीं रहते और तुम तो अकेले सोटा से खड़े हो........" महात्मा जी के इतना कहते ही सांवरिया जी के कंधे पर श्रीजी का मुख दिखाई दिया, आकाश में बिजली सी चमकी और साक्षात् वृषभानु नंदिनी, वृन्दावनेश्वरी, रासेश्वरी श्री हरिदासेश्वरी स्वामिनी श्री राधिका जी अपने प्रीतम को गल-बहियाँ दिए महात्मा जी के समक्ष प्रकट हो गईं.....और बोलीं " बाबा मैं अलग हूँ क्या अरे मैं ही तो ये कृष्ण हूँ और ये कृष्ण ही तो राधा हैं, हम दोनों अलग थोड़े न है... हम दोनों एक हैं "..........अब तो युगल स्वरुप का दर्शन पाकर महात्मा जी आनंदविभोर हो उठे...उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी.....अब जैसे ही किशोरी राधा-कृष्ण जटा सुलझाने आगे बढे...महात्मा जी चरणों में गिर पड़े और बोले " अब जटा क्या सुलझाते हो युगल जी अब तो जीवन ही सुलझा दो.....मुझे नित्य लीला में प्रवेश देकर इस संसार से मुक्त करो दो".........महात्मा जी ने ऐसी प्रार्थना करी और प्रणाम करते-करते उनका शरीर शांत हो गया....स्वामिनी जी ने उनको नित्य लीला में स्थान प्रदान किया........ ये भाव राज्य की लीला है, भगवान श्रीराधा-माधव में कोई भेद नहीं है.....दोनों एक प्राण दो देह हैं.....जो मनुष्य अपनी अल्पज्ञतावश मूढ़तावश या अहंकारवश किशोरी राधा-कृष्ण दोनों में भेद समझते हैं वे संसार के घोर मायाजाल में गिर जाते हैं उनका पतन होना निश्चित है, वे भक्ति के परमपद को कभी प्राप्त नहीं करते........युगल चरणों में प्रेमभाव रखते हुए किशोरी राधा-कृष्ण एवं समस्त भक्तवृंद को दास का दंडवत प्रणाम....भगवान श्रीराधा-कृष्ण की कृपा सदैव हम सभी पर बरसती रहे.......
 

जय श्रीराधे !!

हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं !!  

॥ O' My Lord! May I never forget you ! ॥

चेष्टा भजन और सत्संग के लिये....

कोई मनुष्य बीमार है । वैद्य कहता है कि अमुक वस्तु आने से यह बच सकता है । ऐसे समय उस वस्तु के लिये कितनी अधिक चेष्टा होती है । ऐसी ही चेष्टा भजन और सत्संग के लिये होनी चाहिये । इच्छा के तीव्र होने से ही तीव्र चेष्टा होती है और तीव्र चेष्टा होने से ही इष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है । मिथ्या सांसारिक वस्तुएँ तो चेष्टा करने पर भी शायद नहीँ मिलती एवं मिल जानेपर भी रोगी को शायद लाभ पहुँचे अथवा न पहुँचे, परंतु भजन और सत्संग के लिये चेष्टा करने से तो अवश्य ही सफलता प्राप्त होती है । भजन-सत्संगरुपी औषध का बहुत दिनोँ तक सेवन करने से जन्म-मरणरुपी कठिन भव-रोग अवश्य ही नष्ट हो जाता है । सत्य की चेष्टा कभी व्यर्थ नहीँ जाती ।
By:-  Jaydayalji Goyandka - Sethji