हरि अपनैं आँगन कछु गावत...

हरि अपनैं आँगन कछु गावत ।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनहीं मनहि रिझावत॥
बाँह उठाइ काजरी-धौरी गैयनि टेरि बुलावति ।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत ॥
माखन तनक आपनैं कर लै, तनक बदन मैं नावत ।
कबहुँ चितै प्रतिबिंब खंभ लौनी लिए खवावत ॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष अनंद बढ़ावत ।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित-नितहीं देखत भावत ॥

श्यामसुन्दर अपने आँगन में कुछ गा रहे हैं । वे अपने नन्हें-नन्हें चरणों से नाचते जाते हैं और अपने-आप अपने ही चित्त को आनन्दित कर रहे हैं । कभी दोनों हाथ उठाकर `कजरी'`धौरी' आदि नामों से गायों को पुकारकर बुलाते हैं, कभी नन्द बाबा को पुकारते हैं और कभी घर के भीतर चले आते हैं । अपने हाथ पर थोड़ा-सा मक्खन लेकर छोटे-से मुख में डालते हैं, कभी मणिमय खम्भे में अपना प्रतिबिम्ब देखकर (उसे अन्य बालक समझकर) मक्खन लेकर उसे खिलाते हैं । श्रीयशोदा जी छिपकर यह लीला देख रही हैं । वे हर्षित हो रही हैं, (अपनी लीला से प्रभु) उनका आनन्द बढ़ा रहे हैं। सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के बालचरित्र नित्य-नित्य देखने में रुचिकर लगते हैं । (उनमें नित्य नवीन आनन्द मिलता है।)


Hari (Krishna) is singing something in his courtyard (aangan). He is dancing with His little-little feet and enticing His own mind (till rijhavat).

Sometimes, He lifts His hands and calls the cows, by names Kajari and Dhauri, and then returns back to His home calling His father as Baba Nand (till aavat).

He takes a bit of butter in His small hand and puts in His small mouth. Sometimes, He assumes the reflection in pillar to be another child and tries to offer Him a bit of butter (till khavaavat).

Jasomati, the mother of Krishna, observes Him from far off and enjoys the sportive activities of baby Krishna. Surdas, the poet, observes these sportive actions of Baby Krishna and feels elated day by day (till bhaavat).


your's servent
Radha Madhav Daas

जब भक्त संकट में होता है, तो वो अपने भगवान् से करुण पुकार करता है और भगवान् भक्त को..........

अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥

जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदास जी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पड़ा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड़ गयी। मृग (परमपद को ढूँढ़ने वाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाड़कर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)।

jay shree radheshyaam

jay shree sitaraam

your's servent
Radha Madhav Daas.

जीव समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये

अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥

जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदास जी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पड़ा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड़ गयी। मृग (परमपद को ढूँढ़ने वाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाड़कर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)।

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