धन का सदुपयोग ...

भगवान् ने आपको जो कुछ दिया है, वह आपका नहीं है, भगवान् का है | आप उसके स्वामी नहीं है, आप तो उसकी रक्षा, व्यवस्था और भगवदाज्ञानुसार भगवदर्थ खर्च करने वाले सेवक मात्र हैं | इस धन को बड़ी दक्षता के साथ भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए | दक्षता यही कि दान करते समय परिवार के लोगों को न भूल जाएँ, धूर्तों के द्वारा ठगे न जाएँ और योग्य पात्र  कभी विमुख न लौटें | यह तो उनका सौभाग्य है जो उन्हें भगवान् की चीज़ भगवान् की  सेवा में लगाने का सुअवसर मिल रहा है | अतएव आपके पास जब कोई अभाव युक्त बहिन-भाई सहायता के लिए आवें, तब आपको ह्रदय से उनका स्वागत करना चाहिए  और उचित जाँच के बाद यदि वे आपको योग्य पात्र जान पड़े तो उनकी यथायोग्य सेवा करके अपने को धन्य मानना चाहिए और आनन्द मनाना चाहिए इस बात का कि आप भगवान् की वस्तु के द्वारा भगवान् की  सेवा होने में 'निमित्त'  बन रहे हैं |
  आपके द्वारा जिनकी सेवा हो, उनपर कभी अहसान नहीं जताना चाहिए, न यही मानना चाहिए कि वे आपसे निम्न-श्रेणी के हैं | धन न होने से वस्तुत: कोई नीचा नहीं हो जाता | नीचा मानने वाले ही नीचे होते हैं | धन या पद का न तो कभी घमंड करना चाहिए और न धन के या पद के बल पर किसी को अपने से नीचा मानकर उसका तिरस्कार करना चाहिए | बल्कि ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जिसमें आपसे सहायता पाकर किसी को कभी आपके सामने सकुचाना न पड़े - सिर न झुकाना पड़े | आपको यही मानना चाहिए कि आपने उसका हक़ ही उसको दिया है | वह उपकार मानकर कृतज्ञ हो तो यह उसका कर्तव्य है, परन्तु आपको तो यही मानना चाहिए कि मैंने उसका कोई उपकार नहीं किया है वस्तुत: किसी को आप कुछ देते हैं तो आपका ही उपकार होता है |
 
 
By:- Hanuman Prasad Poddarji - Bhaiji Gita Press Gorakhpur.

पुरुषोत्तम मास के नियम


पुरुषोत्तम मास के नियम

पुरुषोत्तम मास का दूसरा नाम मल मास है | ‘मल’ कहते हैं पाप को और ‘पुरुषोत्तम’ नाम है भगवान् का | इसलिए हमें इसका अर्थ यों लगाना चाहिए की पापों को छोडकर भगवान पुरुषोत्तम में प्रेम करें और वो ऐसा करें की इस एक महीने का प्रेम अनंत कालके लिए चिरस्थायी हो जाए | भगवान में प्रेम करना ही तो जीवन का परम-पुरुषार्थ है, इसी केलिए तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन और सदसद्विवेक प्राप्त हुआ है | हमारे ऋषियों ने पर्वों और शुभ दिनों की रचना कर उस विवेक को निरंतर जागृत रखने के लिए सुलभ साधन बना दिया है, इसपर भी यदि हम ना चेतें तो हमारी बड़ी भूल है |
इस पुरुषोत्तम मास में परमात्मा का प्रेम प्राप्त करनेके लिए यदि सबही नर-नारी निम्नलिखित नियमों को महीनेभर तक सावधानी के साथ पालें तो उन्हें बहुत कुछ लाभ होने की संभावना है |

१.
प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठें |

२.
गीताजी के पुरुषोत्तम-योग नामक 15 वे अध्याय का प्रतिदिन श्रद्धा पूर्वक पाठ करें
| श्रीमद भागवत का पाठ करें, सुनें | संस्कृत के श्लोक ना पढ़ सकें तो अर्थों का ही पाठ करलें |

३.
स्त्री-पुरुष दोनों एक मतसे महीनेभर तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें | जमीनपर सोवें |

४.
प्रतिदिन घंटे भर किसी भी नियत समयपर मौन रहकर अपनी-अपनी रूचि और विश्वास के अनुसार भगवान् का भजन करें |

५.
जान-बूझकर झूठ ना बोलें | किसीकी निंदा ना करें |
६. भोजन और वस्त्रों में जहां तक बन सके, पूरी शुद्धि और सादगी बरतें | पत्तेपर भोजन करें, भोजन में हविष्यान्न ही खाएं |

७.
माता,पिता,गुरु,स्वामी आदि बड़ों के चरणोंमें प्रतिदिन प्रणाम करें | भगवान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की पूजा करें|


पुरुषोत्तम मास में दान देनेका और त्याग करनेका बड़ा महत्त्व माना गया है, इसलिए जहां तक बन सके, जिसके पास जो चीज़ हो वाही योग्य पात्र के प्रति दान देकर परमात्मा की सेवा करनी चाहिए | त्याग करनेमें तो सबसे पहले पापों का त्याग करना ही जरूरी है | जो भाई या बहन हिम्मत करके कर सकें, वे जीवन भर के लिए झूठ, क्रोध और दूसरों की जान-बूझकर बुराई करना छोड़ दें |


जीवन भर का व्रत लेनेकी हिम्मत ना हो सकें तो जितने अधिक दिनों का ले सकें, उतना ही लें | परन्तु जो भाई-बहन दिलकी कमजोरी, इन्द्रियों की आसक्ति, बुरी संगती अथवा बिगड़ी हुयी आदत के कारण मांस खाते हैं और मदिरा-पान करते हैं तथा पर-स्त्री और पर-पुरुष से अनुचित संबंध रखते हैं, उनसे तो हम हाथ-जोड़कर प्रार्थना करते हैं की वे इन बुराईयोंको सदा के लिए छोडकर दयामय प्रभुसे अब तक की भूल के लिए क्षमा मांगे |


जो भाई-बहन ऊपर लिखे सातों नियम जीवन-भर पाल सकें तो पालने की चेष्ठा करें, कम-से-कम चातुर्मास नहीं तो पुरुषोत्तम महीने भर तक तो जरूर पालें और भविष्य में सदा इसे पालने के लिए अपनेको तैयार करें | अपनी कमजोरी देखकर निराश ना हों, दया के सागर और परम करुनामय भगवान का आश्रय लेनेसे असंभव भी संभव हो जाता है* |


*जितने नियम कम-से-कम पालन कर सकें उतने अवश्य ही पालें |
*********************************************************************************** पूर्ण समर्पण , हनुमानप्रसादपोद्दार , गीताप्रेस गोरखपुर, पुस्तक कोड ३५२ ***********************************************************************************



भजन क्यों नहीं होता ?



जो मनुष्य विषय-भोगो को बाहर से त्याग करके यह मानता है की  'मैंने बहुत बड़ा त्याग किया है, कैसे कैसे महत्वपूर्ण विषयों को छोड़कर घर-द्वार, कुटुंब-परिवार, धन-ऐश्वर्य, पद-अधिकार का परित्याग कर वैराग्य को ग्रहण किया है, वह बाहर से भोग-पदार्थो का त्याग करने वाला होने पर भी वस्तुत मन से भोगो का त्याग नहीं कर पाया है, क्योकि उसके मन में भोगो की स्मृति है और उनकी महता बनी हुई है तभी तो वह अपने को 'बड़ा त्यागी' मानता है | क्या जंगल में या पाखाने में मल त्यागकर आने वाला मनुष्य कभी तनिक भी मन में गौरव करता है की मैंने बड़े महत्व के वास्तु का त्याग किया है ?
क्या उसे उसमे जरा भी अभिमान का अनुभव होता है ? वह तो बस सहज आराम का अनुभव करता है | इसी प्रकार विषय-भोगो में मल बुद्धि या विष-बुद्धि होने पर उनके त्याग में आराम तो मिलता है, पर किसी प्रकार का अभिमान नहीं हो सकता, क्योकि उसका वह त्याग भगवान में महत्व बुद्धि और भोगो में वास्तविक त्याग-बुद्धि होने पर ही होता है | ऐसे पुरुषो का अथवा उनका सत्संग करना चाहिये जो भगवत प्रेम के नशे में चूर होकर या तो संसार को सर्वथा भूल चुके है या जिनको नित्य निरंतर समग्र जगत में केवल अपने प्रियतम के मधुर मनोहर झांकी हो रही है | सत्संग के द्वारा जितना मोह का पर्दा हटेगा या फटेगा, उतना ही विषय-मोह मिटकर भगवान् के और चित्त का आकर्षण होगा और उतनी ही अधिक भगवत भजन में प्रवृति होगी | एवं ज्यो ज्यो भजन में निष्कामता, प्रेम और निरंतरता आएगी, त्यों ही त्यों मोह निशा का अंत समीप आता जायेगा | फिर तो मोह मिटते ही भगवान् ह्रदय में आ विराजेंगे | विराज तो अब भी रहे है, परन्तु हमने अपनी अन्दर की आँखों पर पर्दा डाल रखा है और उनके स्थान पर मलिन काम को बैठा रखा है, इससे वे छिपे हुए है | फिर प्रगट हो जायेंगे और उनके प्रगट होते ही काम-तम भाग जायेगा --

जहाँ काम तह राम नहीं, जहाँ राम नहीं काम | तुलसी कबहू की रही सके, रवि रजनी एक ठाम ||