भक्त के लक्षण -१




 
भगवान को भक्तो का बड़ा महत्व है | वे जगत के लिए आदर्श होते है; क्योकि भगवद्भक्ति के प्रताप  से उनमे दुर्लभ दैवी गुण अनिवार्यरूप से प्रकट हो जाते है, जो उनके लिए स्वाभाविक लक्षण होते है | भक्त का स्वरुप जानने के लिये उन लक्षणों का जानना आवश्यक है | उनमे से कुछ ये है -

१.    भक्त अज्ञानी नहीं होता , वह भगवान के प्रभाव , गुण, रहस्य को तत्व से जानने वाला होता है | प्रेम के लिए ज्ञान की बड़ी आवश्यकता है | किसी न किसी अंश में जाने बिना उससे प्रेम नहीं हो सकता और प्रेम होने पर ही उसका गुह्तम यथार्थ रहस्य जाना जाता है | भक्त भगवान के गुह्तम रहस्य को जानता है, इसलिए भगवान के प्रति उसका प्रेम उतरोतर बढ़ता ही रहता है | भगवान रससार है | उपनिषद भगवान को ‘रसो वै स:’ कहते है | इस प्रेम में भी द्वैत  नहीं भासता ! प्रेम की प्रबलता से ही राधा जी कृष्ण बन जाती है और श्री कृष्ण राधा जी | कबीर साहब कहते है –  

जब में था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नायँ |
                                                   प्रेम-गली अति साँकरी, यामे दो न समायँ ||
 
वस्तुत: ज्ञानी और भक्त की स्तिथी में कोई अन्तर नहीं होता | भेद इतना ही है, ज्ञानी ‘ सर्वं खल्विदं ब्रह्म’ कहता है और भक्त ‘वासुदेव: सर्वमिति’ अथवा गोसाइजी की भाषा में वह कहता है –

सिय राममय सब जग जानी | करहु  प्रनाम जोरि जग पानी ||

 
  भगवचर्चा,हनुमानप्रसाद पोद्दार,गीताप्रेस,गोरखपुर,कोड ८२०, पन्ना न० १९४

प्रेमरुपा भक्ति का स्वरुप


        अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:l
      इस सूत्र के 'अथ' और 'अतः' शब्द से यह प्रतीत होता है कि भक्तिमार्ग के आचार्य परम भक्तशिरोमणि, सर्वभूतहित में रत,दयानिधि देवर्षि नारदजी अन्यान्य सिद्धान्तों  की व्याख्या तो कर चुके; अब जीवों के कल्याणार्थ परम कल्याणमयी  भक्ति के स्वरुप और साधनों की व्याख्या आरंभ करते हैं। नारदजी कहते हैं -
      सा त्वस्मिन परमप्रेमरूपा।। 
      भक्ति के अनेक प्रकार बतलाये गए हैं, परन्तु नारदजी जिस भक्ति की व्याख्या करते हैं वह प्रेम स्वरूपा  है। भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है। ज्ञान, कर्म आदि साधनों के आश्रय से रहित और सब ओर से स्पृहाशून्य  होकर चित्तवृति अनन्य भाव से जब केवल भगवान् में ही लग जाती है; जगत के समस्त पदार्थों से तथा परलोक की समस्त सुख-सामग्रियों से, यहाँ तक कि मोक्ष-सुख से भी चित्त हटकर एकमात्र अपने परम प्रेमास्पद भगवान् में लगा रहता है, सारी  ममता और आसक्ति सब पदार्थों से सर्वथा निकलकर एकमात्र प्रियतम भगवान् के प्रति हो जाती है, तब उस स्थिति को 'अनन्य प्रेम' कहते हैं।
       अमृतस्वरूपा च।।
       भगवान् में अनन्य प्रेम ही वास्तव में अमृत है; वह सबसे अधिक मधुर है और जिसको यह प्रेमामृत मिल जाता है वह उसे पानकर  अमर हो जाता है। लौकिक वासना ही मृत्यु है। अनन्य प्रेमी भक्त के ह्रदय में भगवत्प्रेम की एक नित्य नवीन, पवित्र वासना के अतिरिक्त दूसरी कोई वासना रह ही नहीं जाती। इसी परम दुर्लभ वासना के कारण  वह भगवान् की मुनिमनहारिणी लीला का  साधन बनकर कर्मबन्धन युक्त जन्म-मृत्यु के चक्कर से सर्वथा छूट जाता है। वह सदा भगवान् के समीप निवास करता है और भगवान् उसके समीप।प्रेमी भक्त और प्रेमास्पद भगवान् का यह नित्य अटल संयोग ही वास्तविक अमरत्व है। इसी से भक्तजन मुक्ति न चाहकर भक्ति चाहते हैं।

प्रेम-दर्शन [341] 

प्रेमरुपा भक्ति का स्वरुप


अब आगे .........
अस बिचारि  हरि  भगत सयाने। मुक्ति निरादर भगति  लुभाने।।
         जिसने भगवत-प्रेमामृत पान  कर लिया, वही सिद्ध है। 'सिद्ध' शब्द से यहाँ अणिमादि  सिद्धियों से अभिप्राय नहीं है। प्रेमी भक्त, इन सिद्धियों की तो बात ही क्या, मोक्षरूप सिद्धि भी नहीं चाहता।ये सिद्धियाँ तो ऐसे प्रेमी भक्त की सेवा के लिए अवसर ढूँढा करती है, परन्तु वह भगवत्प्रेम के सामने अत्यन्त  तुच्छ समझकर इनको स्वीकार ही नहीं करता। स्वयं भगवान् कहते हैं -
         'मुझ में चित्त लगाये रखनेवाले मेरे प्रेमी भक्त मुखको छोड़कर ब्रह्मा का पद, इन्द्रासन, चक्रवर्ती राज्य, लोकंतारोका आधिपत्य, योग की सब सिद्धियाँ और सायुज्य मोक्ष आदि कुछ भी नहीं चाहते।' एक भक्त कहते हैं -
         'प्रियतम श्रीकृष्ण की पूजा करते समय शरीर पुलकित हो गया, भक्ति से मन प्रफुल्लित हो गया। प्रेम के आंसुओं ने मुख को और गदगद वाणी ने कंठ को सुशोभित कर दिया। अब तो हमें एक क्षण के लिये भी फुर्सत नहीं है कि हम किसी दूसरे  विषय को स्वीकार करें। इतने पर भी सायुज्य आदि चारों प्रकार की मुक्तियाँ न जाने क्यों हमारे दरवाजे पर खड़ी  हमारी दासी बनने के लिए आतुर हो रही हैं।'
          भक्त यदि भुक्ति और मुक्ति को स्वीकार कर ले तो वे अपना परम सौभाग्य मानती हैं, परन्तु भक्त ऐसा नहीं करते। 'मुक्ति आदि सिद्धियाँ और अनेक प्रकार की विलक्षण भुक्तियाँ ( भोग ) दासी की भांति हरिभक्ति महादेवी की सेवा में लगी रहती हैं।'

प्रेम-दर्शन [341]

प्रेमरुपा भक्ति का स्वरुप



        काकभुशुन्डी जी महाराज कहते हैं -
        जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई l
                             कोटि   भाँति   कोऊ   करे  उपाई।
        तथा   मोच्छ   सुख   सुनु   खगराई।      
                             रहि न सकई हरि भगति  बिहाई।।

        इसीलिये यहाँ सिद्धि का अर्थ 'कृतकृत्यता' लेना चाहिये। भक्त को किसी वस्तु के अभाव का बोध नहीं रहता। वह प्रियतम भगवान् के प्रेम को पाकर सर्वथा पूर्णकाम हो जाता है। यह पूर्णकामता ही उसका अमर होंना है। जब तक मनुष्य कृतकृत्य या पूर्णकाम नहीं होता, तब तक उसे बारम्बार कर्मवश आना-जाना पड़ता है। पूर्णकाम भक्त सृष्टि और संहार दोनों में भगवान् की लीला का प्रत्यक्ष अनुभव कर मृत्यु को खेल समझता है। वास्तव में उसके लिए मृत्यु की ही मृत्यु हो जाती है। प्रभु-लीला के सिवा मृत्युसंज्ञक,कोई भयावनी वस्तु उसके ज्ञान में रह ही नहीं जाती और इसलिये वह तृप्त हो जाता है। जबतक जगत के पदार्थों की ईश्वर-लीला से अलग कोई सत्ता रहती है तभी तक उनको सुखद या दुःख प्रद समझकर मनुष्य निरन्तर  नये-नये सुखप्रद पदार्थों की इच्छा करता हुआ अतृप्त रहता है। जब सबका मूल  स्रोत सबका यथार्थ पूर्ण स्वरुप उसे मिल जाता है तब उन खण्ड और अपूर्ण पदार्थों की ओर उसका मन ही नहीं जाता। वह पूर्ण को पाकर तृप्त हो जाता है।

प्रेम-दर्शन [341]  

प्रेमरुपा भक्ति का स्वरुप



        वह प्रेमी भक्त उस परम महान वस्तु को पा लेता है, जिसके पाने पर सारी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। जगत के प्रेम, ऐश्वर्य, सौन्दर्य, बल, यश, ज्ञान, वैराग्य आदि समस्त पदार्थ, जिनके लिये भोगी और त्यागी सभी मनुष्य अपनी-अपनी रूचि के अनुसार सदा ललचाते रहते हैं, भगवत्प्रेमरूपी दुर्लभ पदार्थ के सामने अत्यन्त तुच्छ हैं। विश्वभर में फैले हुए उपर्युक्त समस्त पदार्थों को एक स्थान पर एकत्रित किया जाये तो भी वे सब मिलकर जिस भगवान् रूपी समुद्र के एक जलकण के समान ही होते हैं, वे भगवान् स्वयं जिस प्रेम के आकर्षण से सदा खिंचे  रहते हैं, उस प्रेम के सामने संसार के पदार्थ किस गिनती में हैं ?
        श्री शुकदेव मुनि कहते हैं - 'जो परम कल्याण के स्वामी भगवान् श्रीहरि की भक्ति करता है वह अमृत के समुद्र में क्रीडा करता है। गढ़ैया में भरे हुए मामूली गंदे जल के सदृश किसी भी भोग या स्वर्गादि में उसका मन चलायमान नहीं होता।'
        प्रेमामृत समुद्र में डूबा हुआ भक्त क्यों अन्य पदार्थों की इच्छा करने लगा ? जैसे भक्त भोग, मोक्ष आदि की इच्छा नहीं करता,वैसे ही  नष्ट हो जाने का शोक भी नहीं करता। भोगों के नाश को वह परमात्मा की लीला समझता है, इससे सदा - हर हालत में आनन्द  में ही रहता है। परन्तु भगवत्प्रेम के सेवन में यदि सायुज्य मोक्ष के साधन में कमी आती है तो वह उसके लिये भी शोक नहीं करता; वरं सदा यही चाहता है कि मेरा भगवत्प्रेम बढ़ता रहे, चाहे जन्म कितने ही क्यों न धारण करने पड़ें।
        इसी प्रकार वह किसी जीव से या लौकिक दृष्टि से प्रतिकूल माने जानेवाले पदार्थ या स्थिति से कभी द्वेष नहीं करता। वह सब जीवों में अपने प्रभु को और सब पदार्थों और स्थिति में प्रभु की लीला को देख-देखकर क्षण-क्षण में आनन्दित होता है।
        भक्त का मन सदा प्रभु-प्रेम में ऐसा तल्लीन हो ज जाता है कि आधे क्षणभर के लिये भी अन्य किसी पदार्थ में नहीं रमता। गोपियाँ उद्धवजी से कहती हैं -
                        उधो,   मन   न   भए  दस   बीस ।
               एक हुतो सो गयो स्याम सँग, को आराधै ईस।।

        मन अपने पास रहता ही नहीं, तब वह दूसरे में कैसे रमे ? इसीलिये तो प्रेमियों के भगवान् का नाम 'मनचोर' है।


प्रेम-दर्शन [341]

प्रेमरुपा भक्ति का स्वरुप


अब आगे .........
                            मधुकर स्याम हमारे चोर।   
         मन हर लियो माधुरी मूरति, निरख नयन की कोर।।

       वे प्रेमी भक्त के चित्त को ऐसी चातुरी से चुराकर अपनी सम्पत्ति बना लेते हैं कि उस पर दूसरे की कभी नज़र भी नहीं पड़ सकती। दूसरा कोई दीखे तब न कहीं उसमें आसक्ति या प्रीति  हो, परन्तु जहाँ मन में दूसरे  की कल्पना तक को स्थान नहीं मिलता, वहाँ  किस में कैसे आसक्ति या रति हो। प्रेममयी गोपियों ने कहा है -
        स्याम  तन  स्याम मन  स्याम है  हमारो  धन,
                    आठों जैम  ऊधौ हमें  स्याम ही सों काम है।।  
       स्याम हिये स्याम जिये स्याम बिनु नाहिं लिये,
                    आन्धे की सी लाकरी अधार स्याम नाम है।।
       स्याम गति  स्याम मति स्याम ही है प्रानपति,
                    स्याम  सुखदाई  सों  भलाई  सोभाधाम  है।।
       ऊधौ  तुम  भए   बौरे  पाती   लैके   आए   दौरे,
                    जोग  कहाँ  राखैं यहाँ  रोम-रोम  स्याम है।।

       जब एक प्रियतम श्रीकृष्ण को छोड़कर दूसरे  का मन में प्रवेश ही निषिद्ध है तब दूसरे किसी की प्राप्ति के लिये उत्साह तो हो ही कैसे ? कोई किसी को देखे, सुने, उसके लिये  मन में इच्छा उत्पन्न हो, तब न उसके लिये  प्रयत्न किया जाए ? मन किसी में रमे, तब न उसे पाने के लिये उत्साह हो। मन तो पहले से ही किसी एक का हो गया;उसने मन पर पूरा अधिकार जमा लिया और स्वयं उसमें आकर सदा के लिये बस गया। दूसरे  किसी के लिये  कोई गुंजाइश ही नहीं रह गयी; यदि कोई आता भी है तो उसे दूर से ही लौट जाना पड़ता है। क्या करे, जगह ही नहीं रही।
    
प्रेम-दर्शन [341]
              

प्रेम-दर्शन


     वह (प्रेमाभक्ति) कामनायुक्त नहीं है, क्योंकि वह निरोध-स्वरूपा है।
      यह प्रेमाभक्ति सर्वथा त्यागरूप है। इसमें धन, संतान, कीर्ति, स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या, मोक्ष की भी कामना नहीं रह सकती। जिस भक्ति के बदले में कुछ माँगा जाता है या कुछ प्राप्त होने की आशा या आकांक्षा है, वह भक्ति कामनायुक्त है, वह स्वार्थ का व्यापार है। प्रेमाभक्ति में तो भक्त अपने प्रियतम भगवान् और उनकी सेवा को छोड़कर और कुछ चाहता ही नहीं। श्रीमद्भागवत भगवान् कपिलदेव कहते हैं कि 'मेरे प्रेमी भक्तगण मेरी सेवा छोड़कर सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारुप्य और सायुज्य ( इन पाँच प्रकार की ) मुक्तियों को देने पर भी नहीं लेते।' यथार्थ भक्ति के उदय होने पर कामनाएँ नष्ट हो ही जाती हैं। क्योंकि वह भक्ति निरोधरुपा  यानी त्यागमयी है। वह निरोध क्या है ?
      लौकिक और वैदिक (समस्त) कर्मों के त्याग को निरोध कहते हैं।
      प्रेम-भक्ति में यह कर्मत्याग अपने-आप ही हो जाता है। प्रेम में मतवाला भक्त अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर अन्य किसी बात को जानता  नहीं; उसका मन सदा श्रीकृष्णाकार बना रहता है, उसकी आँखों के सामने सदा सर्वत्र प्रियतम भगवान् की छबि ही रहती है। दूसरी वस्तु में उसका मन ही नहीं जाता। श्रीगोपियों ने भगवान् से कहा था -
      'हे प्रियतम ! हमारा चित्त आनन्द से घर के कामों में आसक्त हो रहा था, उसे तुमने चुरा लिया। हमारे हाथ घर के कामों में लगे थे, वे भी चेष्टाहीन हो गए और हमारे पैर भी तुम्हारे पाद-पद्मों को छोड़कर एक पग भी हटना नहीं चाहते। अब हम घर कैसे जायें और जाकर करें भी क्या ?'
      जगत का चित्र चित्त से मिट जाने के कारण  वह भक्त किसी भी लौकिक ( स्मार्त) अथवा वैदिक (श्रौत) कार्य के करने लायक नहीं रह जाता। इससे वे सब स्वयमेव छूट जाते है।
      उस प्रियतम भगवान् में अनन्यता और उसके प्रतिकूल विषय से उदासीनता को भी निरोध कहते हैं।
      बाहरी ज्ञान बना रहने की स्थिति में भी प्रेमी भक्त अपने प्रियतम के प्रति अनन्य भाव रखता हुआ उसके प्रतिकूल कार्यों से सर्वथा उदासीन रहता है। इस प्रकार सावधानी से होनेवाले कर्म भी निरोध कहलाते हैं। प्रेमी भक्त के द्वारा होनेवाली प्रत्येक चेष्टा अपने प्रियतम के अनुकूल होती है और अनन्य भाव से उसी की सेवा के लिए होती है। प्रतिकूल चेष्टा तो उसके द्वारा वैसे ही नहीं होती जैसे सूर्य के द्वारा कहीं अँधेरा नहीं होता या अमृत के द्वारा मृत्यु नहीं हो सकती।

प्रेम-दर्शन [341]

प्रेम-दर्शन


प्रेम में अनन्यता

   (अपने प्रियतम भगवान् को छोड़कर) दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम अनन्यता है।
         प्रेमी भक्त के मन में अपने प्रियतम भगवान् के सिवा अन्य किसी के होने की ही कल्पना नहीं होती, तब वह दूसरे  का भजन कैसे करे ? वह तो चराचर विश्व को अपने प्रियतम का शरीर जानता है, उसे कहीं दूसरा दीखता ही नहीं -
   उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहूँ आन पुरुष जग नाहीं।।
         रहीम कहते हैं कि आँखों में प्यारे की मधुर छबि ऐसी समां रही है कि दूसरी किसी छबि के लिये स्थान ही नहीं रह गया - यदि कोई उससे दूसरे की बात कहता है तो वह उसे सुनना ही नहीं चाहता या उसे सुनायी  ही नहीं पड़ती। यदि कहीं जबरदस्ती सुननी  पड़ती भी है तो उसका मन उधर आकर्षित होता ही नहीं।शिवजी की अनन्योपासिका पार्वती जी को सप्तर्षियों ने महादेवजी के अनेक दोष बतलाकर उनसे मन हटाने और सर्वसदगुणसम्पन्न भगवान् विष्णु में मन लगाने को कहा, तब शिवप्रेम की मूर्ति भगवती ने उत्तर दिया -
    
  जन्म कोटि लगि रगर हमारी। ब़रऊँ संभु न त रहऊँ कुआरी।।

महादेव अवगुन  भवन  बिष्णु  सकल गुन  धाम।
जेहि कर मनु राम जाहि सन तेहि तेही सन काम।।
       
     इस प्रकार प्रेमी भक्त एकमात्र अपने प्रियतम भगवान् को ही जानकर, उसी को सर्वस्व मानकर, जैसे मछली को केवल जल की आश्रय होता है, वैसे ही केवल भगवान् का ही आश्रय लेकर सारी  चेष्टाएँ उसीके लिये करता है।

प्रेम-दर्शन [341]
          

निरन्तर नामस्मरण

॥श्रीहरि:॥

निरन्तर भगवान् का नामस्मरण होता रहे l इस से बढ़कर और क्या करना है l निरन्तर नामस्मरण ही भगवान् का सानिध्य प्राप्त कराने में पूर्ण समर्थ है l पाँच बातों का ख्याल रखिये - १- पापकर्म (कम-से-कम शरीर से तो न हो) l २- व्यर्थ चर्चा न हो l ३- किसी के साथ बुरा बर्ताव न हो l ४- भगवान् के नाम की विशेष चेष्टा रहे l ५- भगवत्कृपा पर विश्वास हो l आप विष्णु भगवान् की उपासना करते हैं सो बहुत उत्तम है l ध्यान के लिए समय कम मिलता है, जो कुछ कभी मिलता है - वह दूसरे-दूसरे चिन्तन में बीत जाता है, लिखा सो ठीक है l नामस्मरण यदि होता रहे तो वह ध्यान ही है l पाप न हो, विषय चिन्तन न हो, आलस्य प्रमाद में समय न बीते, संसार का मोह न हो, एकमात्र भगवद चिन्तन में लगे हुए ही सब काम हो - आपकी यह सभी कामनाएं बहुत ही सराहनीय तथा अत्यंत उत्तम हैं l परन्तु मेरे कुछ लिख देने से ही पूरी हो जाएँगी, ऐसी बात नहीं है l आप इन की आवश्यकता का पूरा अनुभव करेंगे और भगवत्कृपा पर विश्वास करके अध्यवसाय में लग जायेंगे तब भगवत्कृपा से ही ये पूरी होंगी l इस के लिए आप श्री भगवान् से प्रार्थना कीजिये l

पदरत्नाकर

पदरत्नाकर



॥श्रीहरि:॥

८३
प्रभु ! तुम अपनौ बिरद सँभारौ।
हौं अति पतित, कुकर्मनिरत, मुख मधु, मन कौ बहु कारौ॥
तृस्ना-बिकल, कृपन, अति पीडित, काम-ताप सौं जारौ।
तदपि न छुटत विषय-सुख-‌आसा, करि प्रयत्न हौं हारौ॥
अब तौ निपट निरासा छा‌ई, रह्यौ न आन सहारौ।
एक भरोसौ तव करुना कौ, मारौ चाहें तारौ॥

८४
प्रभु ! मोहि दे‌उ साँचौ प्रेम।
भजौं केवल तुमहि, तजि पाखंड, झूँठे नेम॥
जरै बिषय-कुबासना, मन जगै सहज बिराग।
होय परम अनन्य तुहरे पद-कमल-‌अनुराग॥
परम श्रद्धेय नित्यलीलालीन श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार भाईजी , पदरत्नाकर कोड- 50, गीता प्रेस , गोरखपुर

प्राणिमात्रके कल्याण

प्राणिमात्रके कल्याणके लिये जितना गहरा विचार हिन्दूधर्ममें किया गया है, उतना और किसी धर्ममें नहीं मिलता । हिन्दूधर्मके सभी सिद्धान्त पूर्णतया वैज्ञानिक और कल्याण करनेवाले हैं । अतः हिन्दूधर्म सर्वश्रेष्ठ है । हिन्दुओंकी वृद्धि आवश्यक क्यों ? हिन्दूधर्ममें मुक्ति, तत्त्वज्ञान, कल्याण, परमशान्ति, परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति जितनी सुगमतासे बतायी गयी है, उतनी सुगमतासे प्राप्तिकी बात ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, यहूदी, पारसी आदि किसी भी धर्ममें नहीं सुनी गयी है । इसलिये मैं चाहता हूँ कि हिन्दुओंकी वृद्धि हो । कारण कि हिन्दूधर्मके अलौकिक, विलक्षण कथोंकी बातोंको हिन्दुओंके सिवाय और कौन सुनेगा और उनका आदर करेगा ? मुसलमानोंने तो हिन्दूधर्मके असंख्य अच्छे-अच्छे ग्रन्थोंको जला डाला । इसलिये आज वेदोंकी पूरी संहिता नहीं मिलती, सभी शास्त्र नहीं मिलते । इस कारण कितनी विलक्षण-विलक्षण विद्याएँ नष्ट हो गयीं, कला-कौशल नष्ट हो गये, जिनसे केवल हिन्दुओंको ही नहीं, संसारमात्रको लाभ पहुँचता । अब मुसलमानोंकी संख्या बढ़ रही है और हिन्दुओंकी संख्या घट रही है तो आगे चलकर क्या दशा होगी ? हिन्दुओंमें कोई-न-कोई तो हिन्दूधर्मके ग्रन्थोंको पढ़ेगा, पर जो हिन्दुओंके ग्रन्थोंको जला-जलाकर हमामका पानी गरम करते रहे, उन मुसलमानोंसे क्या ये आशा रखें कि वे हिन्दुओंके ग्रन्थोंको पढ़ेंगे ? जो हिन्दुओंका धर्म-परिवर्तन करके उनको मुसलमान या ईसाई बनानेमें लगे हुए हैं, उनसे क्या यह आशा की जाय कि वे हिन्दुओंके ग्रन्थोंका आदर करेंगे ? असम्भव है । इसी दृष्टिसे मैं हिन्दुओंमें परिवार-नियोजनका विरोध किया करता हूँ । वास्तवमें मेरा यह उद्देश्य बिलकुल नहीं है कि हिन्दुओंकी संख्या बढ़ जाय, जिससे उनको राज्य मिल जाय । मेरा उद्देश्य यह है कि मनुष्यका जल्दी और सुगमतासे कल्याण हो जाय । मैं कल्याणका पक्षपाती हूँ, राज्यका पक्षपाती नहीं । मेरे मनमें मुसलमानोंके प्रति किंचिन्मात्र भी द्वेष नहीं है । परन्तु वे हिन्दुओंका नाश करना चाहते हैं, इसलिये उनकी क्रिया मेरेको अच्छी नहीं लगती । कोई मेरेसे वैर, द्वेष रखनेवाला हो, मेरा बुरा करनेवाला हो, वह भी अगर मेरेसे अपने कल्याणकी बात पूछे तो मैं उसको वैसे ही बड़े प्रेमसे कल्याणका उपाय बताऊँगा, जैसे मैं अपनेमें श्रद्धा-प्रेम रखनेवालेको बताया करता हूँ । अगर कोई मुसलमान हृदयसे अपने कल्याणका उपाय पूछे तो मैं सबसे पहले उसको बताऊँगा, पीछे हिन्दूको बताऊँगा । मेरा कभी किसीसे भेदभाव रखनेका विचार है ही नहीं । (शेष आगेके ब्लॉगमें) ‒‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे