सन्त हृदयोद्गार


सन्त हृदयोद्गार

1.    अगर आप भगवान को मानते हैं, तो उस मान्यता का परिचय हमारे आपके जीवन से हो, केवल विचारों से नहीं । हमारा जीवन बता दे कि हम भगवान को मानते हैं ।

2.    बहुत से लोग हैं जो प्रभु को मानते हैं । बहुत से लोग हैं जो संसार की वास्तविकता को जानते हैं । महत्व की बात यह है कि उस जाने हुए का प्रभाव कितना है जीवन में; उस माने हुए का प्रभाव कितना है जीवन में ।

3.     भगवान का स्मरण करने से जीव का कल्याण होता है - यह बात भी हम अच्छी तरह जानते हैं, फिर भी मन भगवान में नहीं लगता, तो इससे बढ़कर और नास्तिकता क्या होगी ?

4.    वस्तुविशेष में भगवद्बुद्धि होना कोई कठिन बात नहीं है । पर यह अधूरी आस्तिकता है । पूरी आस्तिकता का तो अर्थ यह है कि भगवान से भिन्न कुछ है ही नहीं । अभी भी नहीं है, पहले भी नहीं था और आगे भी नहीं होगा ।

5.    गहराई से देखिए, किसी का होना कुछ अर्थ नहीं रखता, जबतक कि उससे अपना सम्बन्ध न हो, और किसी से भी सम्बन्ध उस समय तक नहीं होता, जबतक कि उसकी आवश्यकता न हो ।   

6.    अगर आपको उनके (संसार के रचयिता के) बिना अनुकूलता प्रिय है, तो वह उसी प्रकार की है कि एक सुन्दर कमरा सजा है और आप दोस्त के बिना हैं; एक सुन्दर स्त्री श्रृंगार करे और पति से वंचित रहे, या शरीर आत्मा-रहित हो । आस्तिकवाद का न होना जीवन में अकेले पड़े रहने के समान है।

(शेष आगेके ब्लागमें) - सन्त हृदयोद्गार पुस्तक से ।

भगवान् कि कृपा सबकी सम्पत्ति है




जो जितना दीन है, उसमें भगवान् की कृपाशक्तिका उतना ही अधिक प्रकाश है! 'दैन्य' भगवान् की कृपाके प्राकट्यके बीच लगे पर्देको फाड़ डालता है! 


जैसे ब्रम्हाजीकी वाणी एक  'द' तीन अर्थ रखती है, वैसे ही गीता भगवान् श्री कृष्णकी वाणी है! उसके अनेक अर्थ अधिकारी-भेद से  होते हैं! यही हेतु है कि विभिन्न आचार्यों, टीकाकारोंने गीताके अर्थ पृथक् -पृथक् किये हैं! अधिकारी-भेदसे उन सब अर्थोंका सामंजस्य है! 


भगवान् की कृपा अधिकारी-भेद्की अपेक्षा नहीं  रखती! वह केवल देखती है की यह एकमात्र कृपाका आकांक्षी है कि नहीं! 


भगवान् कि कृपा सबकी सम्पत्ति है, पर दोनोंकी सम्पत्ति विशेषरूपसे है; क्योंकि भगवान् 'दीनवत्सल' हैं!


अबोध बालक, जो बोलना नहीं जनता, किसी प्रकारका संकेत करना नहीं जानता, वह रोकर ही मनोव्यथा व्यक्त करता है! इसी प्रकार जिसके पास रोनेके सिवा कोई साधन नहीं, वह भगवान् के सामने कातर होकर रोये! जगतके सामने रोना अशुभ है, कायरता हैं; भगवान् के सामने रोना परम मंगलकारी है एवं परम बलका घोतक है! 


भगवान् की  कृपापर  भरोसा करके दीनभावसे भगवान् के शरणापन्न हो जाना चाहिये! जब हम भगवान् के शरणापन्न हो जाते हैं और भगवान् पास आ जाते हैं, तब उनके दैवी गुण स्वतः हममें आविर्भूत होते हैं! फिर बंधनोंको काटना नहीं पड़ता, बंधन अकुलाकर स्वतः छिन्न हो जाते हैं; ग्रन्थि खोलनी नहीं पड़ती, वह स्वतः खुल जाती है! 


हम कैसे भी हों, भगवान् की कृपा ऐसी विलक्षण है कि वह हमें सब प्रकारके दोषों- पापोंसे मुक्त करके भगवान् के चरणोंका आश्रय प्रदान कर देती है! अन्यथा दीन-हीनोंका काम कैसे बनता! 





भाईजी की अतुल संपत्ति

जीवन में उतारने योग्य भाईजी की अतुल संपत्ति— १.सबमें भगवान् को देखना २.भगवत्कृपा पर अटूट विश्वास ३.भगवन्नाम का अनन्य आश्रय करो प्रभु ! ऐसी दृष्टि-प्रदान। देख सकूँ सर्वत्र तुम्हारी सतत मधुर मुस्कान ॥ हो चाहे परिवर्तन कैसा भी-अति क्षुद्र, महान। सुन्दर-भीषण, लाभ-हानि, सुख-दुःख, मान-अपमान॥ प्रिय-अप्रिय,स्वस्थता-रुग्णता, जीवन-मरण-विधान। सभी प्राकृतिक भोगोंमें हो भरे तुम्ही भगवान् ॥ हो न उदय उद्वेग-हर्ष कुछ,कभी दैन्य-अभिमान। पाता रहूँ तुम्हारा नित संस्पर्श बिना-उपमान॥ - पूज्य भाई जी (पदरत्नाकर) हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ||

सद्गुरू


|| श्री हरि: ||




गुरुर्ब्रह्मा गुरुविष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः |

गुरु: साक्षातपरम्  ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ||


भारतीय साधना में गुरु-शरणागति सर्वप्रथम हैं | सद्गुरु की कृपा बिना साधना का यथार्थ रहस्य समझ में नहीं आ सकता |केवल शास्त्रों और तर्कों से लक्ष्य तक नहीं पंहुचा जा सकता | अनुभवी सद्गुरु साधनपथ के अन्तराय, उससे बचने के उपाय और साधन मार्ग का उपादेय पाथेय बतलाकर शिष्य को लक्ष्य तक अनायास ही पहुँचा देते है | इसलिये श्रुतियो से लेकर वर्तमान समय के संतो की वाणी तक सभी में एक स्वर से सद्गुरु की शरण में उपस्थित होकर अपने अधिकार के अनुसार उनसे उपदेश प्राप्त कर तदनुकूल आचरण करने का आदेश दिया है | सभी संतो ने मुक्तकंठ से गुरु महिमा का गान किया है | यहाँ तक की गुरु और गोविन्द  दोनों के एक साथ मिलने पर पहले गुरु को ही प्रणाम करने की विधि बतलाई गयी है; क्योकि गुरु कृपा से ही गोविन्द के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है | गुरु की महिमा अवर्णनीय है | वे पुरुष धन्य हैं - बड़े ही सौभाग्यवान है जिन्हें सद्गुरु मिले और जिन्होंने अपना जीवन उनके आज्ञा पालन के लिए सहर्ष उत्सर्ग कर दिया |

वास्तव में यथार्थ पारमार्थिक साधन सद्गुरु की सन्निधि में ही संभव हैं | कृपालु गुरु के कर्णधार हुए बिना साधन-तरणी का विषय-समुद्र की नभोव्यापिनी उत्ताल-तरंगो से बच कर उस पार तक पहुच जाना नितान्त असम्भव है | इसलिये प्रत्येक साधक को सद्गुरु की खोज करनी चाहिये और ईश्वर से आर्तभाव से प्रार्थना करनी चाहिये की जिसमे इश्वरानुग्रह से सद्गुरु की प्राप्ति हो जाये; क्योकि वास्तविक संत-महात्मा भगवत्कृपा से ही प्राप्त होते है |

शेष अगले ब्लॉग में ...

नारायण नारायण नारायण.. नारायण नारायण नारायण... नारायण नारायण नारायण....

नित्यलीलालीन श्रद्धेय भाईजी श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार, भगवत्चर्चा, पुस्तक कोड  ८२० गीताप्रेस, गोरखपुर