भक्त ही धर्मप्रसार की सेवा

स्वामी रामसुखदासजी

एक संत ने कहा है मात्र सर्वश्रेष्ठ भक्त ही धर्मप्रसार की सेवा कर सकता है | धर्मप्रसार की सेवा करते समय प्रत्येक क्षण साधकत्त्वकी परीक्षा होती है | प्रसारकी सेवा करनेवाले साधकको अनेकबार विपरीत परिस्थितिका सामना करना पडता है | साधकको प्रसार कार्य हेतु कई बार अपनेघर-द्वार, सुख-सुविधा एवं अपने परिवारजनों का सान्निध्य छोडकर प्रतिकूल वातावरणमें रहना पडता है तो कभी अनेकदिन तक अपनी रुचि अनुसार भोजनके न मिलने से भोजनके प्रति आसक्ति नष्ट हो, मनके रुचि- अरुचि के संस्कार नष्ट हो जाते हैं, तो कभी सेवाके मध्य स्नान एवं समयपर भोजन न कर पाने की स्थिति निर्माण हो जाती है और तब साधक सब कुछ सहज सहन करनेलगता है तब ऐसी परिस्थितिका सामना करते- करते साधक की देहबुद्धि कम हो जाती है और वह आनंदमें रहने लगता है | 

आपलोगों पर भगवान की कितनी कृपाहै कि आप वाणी पढ़ते हैं, संतों के प्रति श्रद्धा है, भावनाहै-यह कोई मामूली गुण नहीं है. आज आपको इसमें कुछ विशेषतानहीं दीखती, पर है यह बहुत विशेष बात, क्यूंकि- ‘वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नी च, अल्पपुण्यवताम् श्रद्धा यथावन्नैव जायते.’ भगवान के प्यारे भक्त, भगवद्भक्ति आदि में थोड़े पुण्य वालों की श्रद्धा नहीं होती. जब बहुत अन्तःकरण निर्मल होता है, तब संतों में, भगवान की भक्ति में, प्रसाद में और भगवान केनाम में श्रद्धा होती है. जिनमें कुछ भी श्रद्धा-भक्ति होती है,यह उनकेबड़े भारी पुण्य की बात है. वे पवित्रात्मा हैं.