"वासुदेव: सर्वम्‌"

प्रश्न-सब कुछ भगवान्‌ ही हैं यह भाव ज्यादा बढ़िया है या सत्‌,असत्‌ ; जड़-चेतन के विवेक को मुख्यता देना ज्यादा बढ़िया है?

स्वामीजी-ज्ञानयोग उन साधकोंके लिये है, जो अत्यन्त वैराग्यवान्‌ हैं। जो न अत्यन्त वैराग्यवान्‌ हैं और न अत्यन्त आसक्त हैं, उनके लिये भक्तियोग ही सिद्धि देनेवाला है। असत्‌ की सत्ताका भाव रहनेसे विवेकप्रधान साधकमें निरन्तर आनन्द नहीं रहता। कारण कि संसार दु:खालय है, इसलिये संसारकी सत्ताका किञ्चिन्मात्र भी संस्कार रहेगा तो विवेक होते हुए भी दु:ख आ जायेगा। इस असत्‌ की सत्ताके संस्कार भीतर रहनेके कारण ही साधक की यह शिकायत रहती है कि बात तो ठीक समझमें आती है पर वैसी स्थिति नहीं होती! उसको कभी तो अपने साधनमें अच्छी स्थिति मालूम देती है और कभी राग-द्वेश अधिक होनेपर ग्लानि, व्याकुलता होती है कि साधन करते हुए इतने वर्ष हो गये पर अभीतक अनुभव नहीं हुआ! भावमें सत्‌ और असत्‌ दोनों रहनेसे ही ऐसी दुविधा होती है। यदि भावमें एक भगवान्‌ ही रहें-‘वासुदेव: सर्वम्‌’ तो ऐसी दुविधा रह ही नहीं सकती।



प्रश्न-स्वामीजी आपने कहा है कि विध्यात्मक साधनसे निषेधात्मक साधन जयादा अच्छा है, क्योंकि निषेधात्मक साधनका अभिमान नहीं होता।.. तो असत्‌ का निषेध करें या उसकी उपेक्षा करें?

स्वामीजी-विवेकमार्गमें साधक असत्‌ का निषेध करता है। निषेध करनेसे असत्‌ की सत्ता बनी रहती है। अत: असत्‌ का निषेध करना उतना बढ़िया नहीं है, जितनी उसकी उपेक्षा करना बढ़िया है। उपेक्षा करनेकी अपेक्षा ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’-यह भाव और भी बढ़िया है। अत: भक्त न तो असत्‌ को हटाता है, न असत्‌ की उपेक्षा करता है, प्रत्युत सत्‌-असत्‌ सबकुछ परमात्मा ही हैं-ऐसा मान लेता है।


प्रश्न-‘वासुदेव: सर्वम्‌’ का भाव विध्यात्मक साधन है या निषेधात्मक?

स्वामीजी-विधि और निषेधकी बात कर्मयोग और ज्ञानयोगमें है। भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग-दोनोंसे अतीत है। विधि-निषेध संसारमें हैं, भगवान्‌ संसारसे अतीत हैं। सब कुछ भगवान्‌ ही हैं-इसमें निषिद्ध वस्तु (असत्‌) की सत्ता ही नहीं है। अत: कर्मयोग और ज्ञानयोगमें निषिद्धका त्याग मुख्य है और भक्तियोगमें विश्वासपूर्वक भगवान्‌ का आश्रय लेना मुख्य है। भगवान्‌ का आश्रय लेना निषिद्धके त्यागसे भी तेज है। आश्रय लेनेका तात्पर्य है-’सब कुछ भगवान्‌ ही हैं, ऐसा दृढ़तासे मानकर ‘मैं’ और ‘मेरा’ दोनोंको भगवान्‌ में लीन कर देना।

प्रश्न-स्वामीजी चुप साधनमें भी तो ‘ विधि और निषेध’ नहीं है, तो चुप साधन और ‘वासुदेव: सर्वम्‌’ इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है?

स्वामीजी-चुप साधन आप कर नहीं सकोगे। आपके समझ में नहीं आयेगी। ‘वासुदेव: सर्वम्‌’ श्रेष्ठ भी है और सुगम भी है। ‘वासुदेव: सर्वम्‌’ बहुत ऊँचा साधन है, चुप साधनसे भी ऊँचा। चुप साधन बड़ा ऊँचा है, परन्तु समझ में जल्दी नहीं आता। और ‘वासुदेव: सर्वम्‌’ में समझना क्या कठिन है? आप बताओ !


प्रश्न-‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’-इस बातको सीख लेना और अनुभव करना- इन दोनोंमें क्या भेद है?

स्वामीजी-सब कुछ भगवान्‌ ही हैं-इसको सीख लेनेपर कभी तो ऐसा दीखेगा कि मैं परमात्माको प्राप्त हूँ और बड़ी शान्ति, बड़ा आनन्द मालूम देगा। परन्तु कभी यह मान्यता ढीली पड़ेगी और जगत्‌ की सत्ता सामने आ जायगी, तब ऐसा दीखेगा कि मेरी वैसी स्थिति हुई ही नहीं। जगत्‌ की सत्ता जितनी दृढ़ होगी, उतनी ही अशान्ति, हलचल, दु:ख, सन्ताप पैदा होंगे और जब विचारपूर्वक जगत्‌ की सत्ता हटेगी तब सब कुछ परमात्मा ही हैं-ऐसा दीखेगा। परन्तु जब ‘सब कुछ परमात्मा ही हैं’-ऐसा अनुभव हो जायगा, तब इसमें फर्क नहीं पड़ेगा। कारण कि भगवान्‌ में जगत्‌ नहीं है।

कुछ प्रश्न मैंने खुदसे लिखा है और प्रश्नों का उत्तर स्वामीजी की पुस्तकसे और प्रवचनसे लिया है। राम राम